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मेरा वजूद

सलीके से सहेजे हैं, सहे हैं अब तलक जो ग़म फकत खुशियों भरा दामन, मेरे दिल को नहीं भाता ! खयाली सब्जबागों में भटक के गुम न हो जाऊं हकीकत से कभी अपनी नहीं नजरें चुराता ! उजालों में ही चलने का नहीं आदी हुआ हूं अंधेरों के सफर में भी नहीं मैं लड़खड़ाता ! मोहोब्बत में कोई कह दे तो मैं सजदे भी कर लूं महज़ मतलबपरस्ती में किसी के दर नहीं जाता ! दुवाओं का असर होता है गर फरियाद सच्ची हो मगरमच्छों के आसूं देख कर कोई नहीं आता ! कोई हमराह हो या फिर सदा तन्हां रहूं मैं कभी बस दिल्लगी में ही नहीं दिल को लगाता !                      ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

फिरंगी वेशभूषा

कोई कितना भी सज धज ले फिरंगी भेष भूषा में, अधूरा है अगर माथे पे इक  बिंदी नहीं आती ! मिडिल क्लासों की चाहत से  वो अब बच कर निकलती है उसे इंग्लिश का रोना है उन्हें हिंदी नहीं आती ! उसे बेअबरू कैसे  सरे महफिल में कर दूं मैं खयालों में भी जिसकी छवि कभी गंदी नहीं आती ! टके के भाव है गेंहू किसानों के यहां जब तक दलालों तक पहुंचने पर कभी मंदी नहीं आती ! अमीरों के हवा महलों के आगे बिछ रहीं सड़कें गरीबों के दुवारे एक पगडंडी नहीं आती जो कन खाके था जोड़ा धन वो कालाधन लगे उनको करप्शन से बने नोटों पे अब बंदी नहीं आती !            ©️  दीपक शर्मा ’सार्थक’

मास्टर साहब (भाग 4)

एक शायर का शेर जो मुझे बहुत पसंद है वो कुछ इस तरह है – " इजहारे मोहब्बत पे अजब हाल है उनका   आंखे तो रजामंद है.. पर लबों पर ना है !" कुछ ऐसा ही हाल हमारे विभाग का भी है। वो शिक्षकों  की हर मांग पर रजामंद तो दिखते हैं, पर अंत में उनके श्री मुख( लबों) से ना ही फूटता है। और इस पर भी किसी नाखरीली बीबी की तरह न निकुर करते–करते उन्होंने अंतर्जनपदीय स्थानांतरण तो किया...पर क्या खाक किया ! शिक्षक खास कर पुरुष शिक्षक मुंह खोले रह गया और मलाई कोई और चाट गया। ये ट्रांसफर अंतर्जनपदीय स्थानान्तरण की जगह अंतर्राष्ट्रीय स्थानांतरण हो गया..इतना टिटम्बा तो अमेरिकन वीज़ा पाने में नहीं लगता जितना इस ट्रांसफर में था। और इसका परिणाम ये हुआ की अपने गृह जनपद जाने की आस लगाए शिक्षकों का हाल किसी दूसरे ग्रह पर घर बसाने जैसा हो गया। खैर अब वो अंतःजनपदीय और म्यूचुअल ट्रांसफर में लगे हैं। लेकिन सच ये है की म्यूचुअल मिलना जीवन साथी मिलने से भी ज्यादा कठिन है। क्योंकि शादी के लिए तो यदि 24 गुण मिल जाए तो हो जाती है पर म्यूचुअल के लिए पूरे 36 गुण मिलना आवश्यक है। इसलिए इसका हाल भी अंतर्जनपदीय ट्रांसफर जैसा...

अब देश में सब कुछ है बंद

मुद्रा तो बस बदनाम है अब देश में सब कुछ है बंद ! जितने विरोध के थे प्रसंग कुचले सहस्त्र शब्दों के कंठ जिव्हा हुईं अगणित अपंग जनमत हुआ राजा से रंक जिसने भी एक आवाज की वो बैन है या फिर है तंग मुद्रा तो बस बदनाम है अब देश में सब कुछ है बंद ! मस्तिष्क में बैठा भुजंग वसुधा हुई जैसे बेरंग सुचिता में अब लग गई जंग सब मस्त हैं खाकर के भंग गरदन पे जब आरी चली कट के गिरी जैसे पतंग मुद्रा तो बस बदनाम है अब देश में सब कुछ है बंद !               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

कठपुतली

चमकने की हवस से ग़र मिले फुर्सत, ज़रा देखो तराशे जा रहे हो या कि कटपुतली हो हाथो की ! जिसे दिलकश समझते हो, वो बातों का सिकंदर है जो बस बाते बनाए, क्या है कीमत उसके बातों की ! यूं आंखें बंद करके कर रहे सजदे, संभल जाओ ज़रा सोचो हकीकत क्या है इन सारे फसादों की ! जरूरी तो नहीं वो बोलता है जो, सभी सच हो तुम्हें लगने नहीं है दी भनक अपने इरादों की ! जो वादे कर रहे तुमसे, सुनहरा कल बनाएंगे कपट मतलबपरस्ती से बनी फ़ेहरिस्त वादों की ! सफेदी की लिए चमकार जो दिन में भटकते हैं घिनौनी है बहुत उनमें छुपी उन्माद, रातों की !                         ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

मास्टर साहब (भाग 3)

"रण बीच चौकड़ी भर–भर कर कर चेतक बन गया निराला था !"  "चेतक बन गया निराला था" इसका ये मतलब मत निकाल लीजिएगा की वो महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ बन गया था। वो तो एक अद्भुद घोड़ा था। यहां इसका जिक्र करने का उद्देश्य बस इतना भर है की अब मास्टर भी रण बीच चौकड़ी भर–भर कर निराला हो गया है।(वो अलग बात है जिस हिसाब से उससे काम लिया जा रहा है, उसकी हालत घोड़े जैसी नहीं बल्कि खच्चर जैसी हो गई है।) लाल फीता साही ने पहले "निरीक्षण" कराया..फिर "परिवेक्षण" कराया..इस पर भी जब उसका मन नहीं भरा..तो अब वो मास्टरों से हाउस होल्ड "सर्वेक्षण" करवा रही है। और मास्टर भी जेठ की दुपहरी में सिर पर बस्ता रखे, "वीर तुम बढ़े चलो.. धीर तुम बढ़े चलो" वाले भाव के साथ घर–घर सर्वेक्षण करते घूम रहा है। यानी चेतक कविता की भाषा में कहें तो – "कौशल दिखलाया निरीक्षण में फंस गया भयानक परवेक्षण में निर्भीक गया सर्वेक्षण में  घर–घर भागा अन्वेषण में " हां.. हां ! मानते हैं यहां इस कविता में मैंने थोड़ा अतिशयोक्ति का प्रयोग कर दिया है। अभी तक शिक्षको का ...

मेरी दृष्टि से बुद्ध

हमेशा की तरह पहले ही स्पष्ट कर दूं कि बुद्ध व्यापक हैं और मेरी दृष्टि संकुचित है। लेकिन फिर भी मैं जितना उनको देख (समझ) पा रहा हूं, उनके बारे में बस उतना ही व्यक्त करूंगा। देखा जाए तो कितना आसान है बुद्ध को समझना..कितना सरल है उनके मार्ग का अनुकरण करना। लेकिन फिर भी हमारी अज्ञानता ने हमें कितना पंगु बना दिया है जो उनकी तरफ हम दो कदम नहीं बढ़ा पाते। कभी–कभी सोचता हूं सिद्धार्थ का बुद्ध हो जाना भी कितना स्वाभाविक था। आप कल्पना करिए, एक राजा के यहां के सुंदर सा बेटा पैदा होता है। पंडितो द्वारा भविष्यवाणी कर दी जाती है की ये बच्चा आगे चलकर राज्य के स्थान पर वैराग्य को चुनेगा।और फिर राजा अपने बच्चे को वैराग्य के मार्ग पर जाने से रोकने के लिए.. क्या–क्या जतन नहीं करता। ऐसा कहा जाता है कि सिद्धार्थ के रहने के लिए तीनों ऋतुओं ( जाड़ा गर्मी बरसात) को ध्यान में रखते हुए तीन महल बनवाए गए थे। जिनमे उनकी विलासता का पूरा ध्यान रखा गया था। बहुत ही सुंदर और जवान सेवक ही उनकी सेवा में लगाए गए थे। वो जब कभी भी नगर भ्रमण के लिए निकलते थे तो नगर वासियों को सख्त निर्देश थे की कोई बूढ़ा बीमार यहां तक कुरूप ...