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अब देश में सब कुछ है बंद

मुद्रा तो बस बदनाम है अब देश में सब कुछ है बंद ! जितने विरोध के थे प्रसंग कुचले सहस्त्र शब्दों के कंठ जिव्हा हुईं अगणित अपंग जनमत हुआ राजा से रंक जिसने भी एक आवाज की वो बैन है या फिर है तंग मुद्रा तो बस बदनाम है अब देश में सब कुछ है बंद ! मस्तिष्क में बैठा भुजंग वसुधा हुई जैसे बेरंग सुचिता में अब लग गई जंग सब मस्त हैं खाकर के भंग गरदन पे जब आरी चली कट के गिरी जैसे पतंग मुद्रा तो बस बदनाम है अब देश में सब कुछ है बंद !               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

कठपुतली

चमकने की हवस से ग़र मिले फुर्सत, ज़रा देखो तराशे जा रहे हो या कि कटपुतली हो हाथो की ! जिसे दिलकश समझते हो, वो बातों का सिकंदर है जो बस बाते बनाए, क्या है कीमत उसके बातों की ! यूं आंखें बंद करके कर रहे सजदे, संभल जाओ ज़रा सोचो हकीकत क्या है इन सारे फसादों की ! जरूरी तो नहीं वो बोलता है जो, सभी सच हो तुम्हें लगने नहीं है दी भनक अपने इरादों की ! जो वादे कर रहे तुमसे, सुनहरा कल बनाएंगे कपट मतलबपरस्ती से बनी फ़ेहरिस्त वादों की ! सफेदी की लिए चमकार जो दिन में भटकते हैं घिनौनी है बहुत उनमें छुपी उन्माद, रातों की !                         ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

मास्टर साहब (भाग 3)

"रण बीच चौकड़ी भर–भर कर कर चेतक बन गया निराला था !"  "चेतक बन गया निराला था" इसका ये मतलब मत निकाल लीजिएगा की वो महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ बन गया था। वो तो एक अद्भुद घोड़ा था। यहां इसका जिक्र करने का उद्देश्य बस इतना भर है की अब मास्टर भी रण बीच चौकड़ी भर–भर कर निराला हो गया है।(वो अलग बात है जिस हिसाब से उससे काम लिया जा रहा है, उसकी हालत घोड़े जैसी नहीं बल्कि खच्चर जैसी हो गई है।) लाल फीता साही ने पहले "निरीक्षण" कराया..फिर "परिवेक्षण" कराया..इस पर भी जब उसका मन नहीं भरा..तो अब वो मास्टरों से हाउस होल्ड "सर्वेक्षण" करवा रही है। और मास्टर भी जेठ की दुपहरी में सिर पर बस्ता रखे, "वीर तुम बढ़े चलो.. धीर तुम बढ़े चलो" वाले भाव के साथ घर–घर सर्वेक्षण करते घूम रहा है। यानी चेतक कविता की भाषा में कहें तो – "कौशल दिखलाया निरीक्षण में फंस गया भयानक परवेक्षण में निर्भीक गया सर्वेक्षण में  घर–घर भागा अन्वेषण में " हां.. हां ! मानते हैं यहां इस कविता में मैंने थोड़ा अतिशयोक्ति का प्रयोग कर दिया है। अभी तक शिक्षको का ...

मेरी दृष्टि से बुद्ध

हमेशा की तरह पहले ही स्पष्ट कर दूं कि बुद्ध व्यापक हैं और मेरी दृष्टि संकुचित है। लेकिन फिर भी मैं जितना उनको देख (समझ) पा रहा हूं, उनके बारे में बस उतना ही व्यक्त करूंगा। देखा जाए तो कितना आसान है बुद्ध को समझना..कितना सरल है उनके मार्ग का अनुकरण करना। लेकिन फिर भी हमारी अज्ञानता ने हमें कितना पंगु बना दिया है जो उनकी तरफ हम दो कदम नहीं बढ़ा पाते। कभी–कभी सोचता हूं सिद्धार्थ का बुद्ध हो जाना भी कितना स्वाभाविक था। आप कल्पना करिए, एक राजा के यहां के सुंदर सा बेटा पैदा होता है। पंडितो द्वारा भविष्यवाणी कर दी जाती है की ये बच्चा आगे चलकर राज्य के स्थान पर वैराग्य को चुनेगा।और फिर राजा अपने बच्चे को वैराग्य के मार्ग पर जाने से रोकने के लिए.. क्या–क्या जतन नहीं करता। ऐसा कहा जाता है कि सिद्धार्थ के रहने के लिए तीनों ऋतुओं ( जाड़ा गर्मी बरसात) को ध्यान में रखते हुए तीन महल बनवाए गए थे। जिनमे उनकी विलासता का पूरा ध्यान रखा गया था। बहुत ही सुंदर और जवान सेवक ही उनकी सेवा में लगाए गए थे। वो जब कभी भी नगर भ्रमण के लिए निकलते थे तो नगर वासियों को सख्त निर्देश थे की कोई बूढ़ा बीमार यहां तक कुरूप ...

मास्टर साहब (भाग 2)

किसी जमाने में एक गाना बहुत फेमस हुआ था  "झूठ बोले कौवा काटे..काले कौए से डरियो मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो" अब इससे इतना तो पता ही चलता है की यदि कोई बात कितनी भी अतर्किक और मूर्खता भरी क्यों न हो, बस अगर सुनने में अच्छी लगती है तो लोग खूब सुनते और गुनगुनाते हैं। वरना सोचने की बात है भला झूठ बोलने पर कहीं कौवा काटना है! कुत्ता काटे होता तब भी समझ में आता! खैर इस गाने से मेरा दूर–दूर तक सरोकार नहीं है।मेरी बात तो शुरू होती है इस गाने के अगली कड़ी (अंतरा) से। जिन्होंने ये गाना पूरा सुना होगा उनको पता होगा की जब लड़की बोलती है – "झूठ बोले कौवा काटे..काले कौए से डरियो मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो" उसके बाद अगली लाइन में लड़का बोलता है – “तू मैके चली जाएगी..मैं डंडा लेकर आऊंगा!" बस ! यही वो क्षण है जब यदि थोक के भाव में सारे  रूपक, उपमेय, उपमान, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकारों के प्रयोग से माध्यम से आप इसे समझेंगे तो आपको पता चलेगा की ये हाल सभी अध्यापक/अध्यापिकाओं का है। अब फिर इस गाने को ध्यान में रखते हुए शिक्षा विभाग की वर्तमान परिस्थिति को समझने की को...

मास्टर साहब

आज सुबह–सुबह ही एक मित्र ने जोक भेजा जो कुछ इस तरह था की "आई लव यू से भी ज्यादा कौन सी चीज है जो सुनने में अच्छी लगती है। और उसका उत्तर है पैसा निकालते समय एटीएम से निकलने वाली ’खर्रर’ वाली आवाज। खैर ये तो एक जोक था पर असल में अब तो एटीएम से ये साउंड सुनने को ज्यादा नसीब ही नहीं होता। एक क्लिक के साउंड के साथ अकाउंट में सेलरी क्रेडिट होने का मैसेज आता है। और फिर भीम पे,गूगल पे, फोन पे जैसे राक्षस अकाउंट की आत्मा को धीरे धीरे करके खा जाते हैं।  लेकिन आजकल तो ऐसे परजीवी भी पैदा हो गए हैं जो सेलरी के अकाउंट में गिरने से पहले हो खा जाते हैं।अभी महीने की शुरुवात में सेलरी अकाउंट में आई। इसी के साथ ही मैंने नोटिस किया की हर बार को अपेक्षा इस बार एक हजार रूपये खाते में कम आए हैं। मुझे टेंशन हुई, इसके कारण फटाफट अपने कई साथी अध्यापकों को कॉल करके उनसे पूछा की क्या उनके साथ भी ऐसा हुआ है? जब सबने बताया कि हां उनकी भी सेलरी में एक हजार रूपिए की सेंध लग गई है तब जाकर कहीं मेरे कलेजे में ठंडक पहुंची। वो कहते हैं न अगर केवल अपने ही घर में चोरी जो जाए तो ज्यादा दुख होता है और अगर पूरे गांव में ...

कहानी एक क्लास की

प्राइमरी के बच्चों की ये आदत होती है, अपनी कॉपी पर काम लेने के लिए उनमें होड़ सी लग जाती है। कॉपी पर शिक्षक द्वारा काम मिल जाने पर उनको उतनी ही प्रसन्नता होती है जितनी किसी जन्मजात ठेकेदार को उसके मनपसंद टेंडर की कॉपी मिलने पर होती है। वो बात अलग है की कॉपी पर मिले उस काम को गिनती के बच्चे करते हैं, बाकी उसे झोले में डालकर सट्टा गुट्टा खेलने में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसी ही कॉपियों की सुनामी से उबर कर( उनपर काम देकर) क्लास की चेयर पर पीछे की ओर गर्दन झुकाकर मैं सुस्ताने लगा। ऋतु बदल रही थी।जाड़ा गर्मी से ठिठुर कर भाग रहा था। और धूप पूरे शबाब पर थी। इसलिए प्यास लगने पर मैंने अपनी क्लास 2 के एक बच्चे आलोक से कहा, "आलोक ! जाओ ऑफिस में मेरी पानी की बॉटल रखी है, उसे उठा लाओ!" आलोक दुबला पतला पर पढ़ने में तेज बच्चा था, वो मेरी हर मानता भी था। अतः मेरी ये बात सुनकर जोश में उठकर खड़ा हो गया, और ऑफिस की तरफ जाने लगा। लेकिन अचानक पता नहीं क्या हुआ वो अपनी जगह ठिठक कर खड़ा हो गया। फिर वो मेरी तरफ देखने लगा।  मैंने पूछा, "क्या हुआ.. जाओ बॉटल लेकर आओ!" अचानक उसका चेहरा भाव शून्य ह...