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मास्टर साहब (भाग 2)

किसी जमाने में एक गाना बहुत फेमस हुआ था  "झूठ बोले कौवा काटे..काले कौए से डरियो मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो" अब इससे इतना तो पता ही चलता है की यदि कोई बात कितनी भी अतर्किक और मूर्खता भरी क्यों न हो, बस अगर सुनने में अच्छी लगती है तो लोग खूब सुनते और गुनगुनाते हैं। वरना सोचने की बात है भला झूठ बोलने पर कहीं कौवा काटना है! कुत्ता काटे होता तब भी समझ में आता! खैर इस गाने से मेरा दूर–दूर तक सरोकार नहीं है।मेरी बात तो शुरू होती है इस गाने के अगली कड़ी (अंतरा) से। जिन्होंने ये गाना पूरा सुना होगा उनको पता होगा की जब लड़की बोलती है – "झूठ बोले कौवा काटे..काले कौए से डरियो मैं मैके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो" उसके बाद अगली लाइन में लड़का बोलता है – “तू मैके चली जाएगी..मैं डंडा लेकर आऊंगा!" बस ! यही वो क्षण है जब यदि थोक के भाव में सारे  रूपक, उपमेय, उपमान, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकारों के प्रयोग से माध्यम से आप इसे समझेंगे तो आपको पता चलेगा की ये हाल सभी अध्यापक/अध्यापिकाओं का है। अब फिर इस गाने को ध्यान में रखते हुए शिक्षा विभाग की वर्तमान परिस्थिति को समझने की को...

मास्टर साहब

आज सुबह–सुबह ही एक मित्र ने जोक भेजा जो कुछ इस तरह था की "आई लव यू से भी ज्यादा कौन सी चीज है जो सुनने में अच्छी लगती है। और उसका उत्तर है पैसा निकालते समय एटीएम से निकलने वाली ’खर्रर’ वाली आवाज। खैर ये तो एक जोक था पर असल में अब तो एटीएम से ये साउंड सुनने को ज्यादा नसीब ही नहीं होता। एक क्लिक के साउंड के साथ अकाउंट में सेलरी क्रेडिट होने का मैसेज आता है। और फिर भीम पे,गूगल पे, फोन पे जैसे राक्षस अकाउंट की आत्मा को धीरे धीरे करके खा जाते हैं।  लेकिन आजकल तो ऐसे परजीवी भी पैदा हो गए हैं जो सेलरी के अकाउंट में गिरने से पहले हो खा जाते हैं।अभी महीने की शुरुवात में सेलरी अकाउंट में आई। इसी के साथ ही मैंने नोटिस किया की हर बार को अपेक्षा इस बार एक हजार रूपये खाते में कम आए हैं। मुझे टेंशन हुई, इसके कारण फटाफट अपने कई साथी अध्यापकों को कॉल करके उनसे पूछा की क्या उनके साथ भी ऐसा हुआ है? जब सबने बताया कि हां उनकी भी सेलरी में एक हजार रूपिए की सेंध लग गई है तब जाकर कहीं मेरे कलेजे में ठंडक पहुंची। वो कहते हैं न अगर केवल अपने ही घर में चोरी जो जाए तो ज्यादा दुख होता है और अगर पूरे गांव में ...

कहानी एक क्लास की

प्राइमरी के बच्चों की ये आदत होती है, अपनी कॉपी पर काम लेने के लिए उनमें होड़ सी लग जाती है। कॉपी पर शिक्षक द्वारा काम मिल जाने पर उनको उतनी ही प्रसन्नता होती है जितनी किसी जन्मजात ठेकेदार को उसके मनपसंद टेंडर की कॉपी मिलने पर होती है। वो बात अलग है की कॉपी पर मिले उस काम को गिनती के बच्चे करते हैं, बाकी उसे झोले में डालकर सट्टा गुट्टा खेलने में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसी ही कॉपियों की सुनामी से उबर कर( उनपर काम देकर) क्लास की चेयर पर पीछे की ओर गर्दन झुकाकर मैं सुस्ताने लगा। ऋतु बदल रही थी।जाड़ा गर्मी से ठिठुर कर भाग रहा था। और धूप पूरे शबाब पर थी। इसलिए प्यास लगने पर मैंने अपनी क्लास 2 के एक बच्चे आलोक से कहा, "आलोक ! जाओ ऑफिस में मेरी पानी की बॉटल रखी है, उसे उठा लाओ!" आलोक दुबला पतला पर पढ़ने में तेज बच्चा था, वो मेरी हर मानता भी था। अतः मेरी ये बात सुनकर जोश में उठकर खड़ा हो गया, और ऑफिस की तरफ जाने लगा। लेकिन अचानक पता नहीं क्या हुआ वो अपनी जगह ठिठक कर खड़ा हो गया। फिर वो मेरी तरफ देखने लगा।  मैंने पूछा, "क्या हुआ.. जाओ बॉटल लेकर आओ!" अचानक उसका चेहरा भाव शून्य ह...

सब्स्टीट्यूट

कभी किसी रोज अचानक कोई मिल जाता है बिना किसी प्रयास के बिना किसी प्लानिंग के अंजाने में ही सही उसका वास्तविक स्वरूप, हृदय के अंतःतल में बस जाता है बिना कोई शोर के बिना किसी हलचल के लेकिन नहीं समझते उसकी अहमियत अहम में खो देते हैं  दिखाकर बचानका सा  और बेहूदा सा अपना एटीट्यूड  उसके बाद उम्र के उस मोड़ से लेकर उम्र के आखरी छोर तक पागलों की तरह, हर किसी में ढूढते फिरते हैं, बस उसी का सब्स्टीट्यूट !               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
तुम लकड़ी मे माचिस दिखाकर  चाहती हो, आग न लगे तुम अंधेरे में दीपक जलाकर चाहती हो, प्रकाश न रहे ! तुम कनखियों से देखकर चाहती हो, मुझे इसका आभास न रहे तुम प्रतिपल पास रहकर चाहती हो, मुझे इसका अहसास न रहे ! तुम ये चाहती हो की मैं तुमको चाहूं लेकिन ये चाहत तुमको न दिखाऊं  तुम सब कुछ चाहते हुए, चाहती हो मैं कोई भी बात आगे न बढ़ाऊं ! कभी–कभी लगता है मुझे सब पता है कि तुम क्या चाहती हो  वहीं दूसरे पल संशय से भर जाता हूं कि भगवान जाने तुम क्या चाहती हो !                    ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

मेरे पसंदीदा रचनाएं

अपने पसंद की रचनाओं पर एक विशेष श्रृंखला मैं लिखना तो बहुत दिनों से चाह रहा था, लेकिन कुछ कारणों या कह ली जिए अंदर के आलस्य के कारण नहीं लिख पा रहा था। वैसे भी मेरे अंदर का साहित्यकार, नेटफ्लिक्स और एमेजॉन प्राइम रूपी राहु से ग्रस्त हो गया था। लेकिन ये तो अच्छा है की ग्रहण बहुत दिनो का नहीं होता। इसलिए पुनः अपने कुछ पसंदीदा साहित्यकारों की कुछ विशेष रचनाएं जो मुझे बहुत पसंद हैं वो आपके सम्मुख लेकर लेकर उपस्थित हूं।  अब जब पसंद की बात चल ही निकली है तो हजारों साहित्य प्रेमियों की तरह मुझे भी महाप्राण निराला की रचनाएं बहुत पसंद हैं। निराला का लेखन अद्भुत है। उनका साहित्य, स्थापित्य मान्यताओं से जकड़े अंतर्मन को झझकोर कर रख देता है। वैसे तो उनकी सभी रचनाएं अपने आप में एक विश्वविद्यालय समेटे हैं। उनमें से कोई एक चुनना बहुत कठिन है। लेकिन फिर भी मैं उनकी प्रसिद्ध रचना ’कुकुरमुत्ता’ को चुनता हूं। और उस रचना का वो हिस्सा जिसमे वो कुकुरमुत्ता, गुलाब को संबोधित कर रहा है, मेरे दिल के बहुत करीब है। वो हिस्सा कुछ इस तरह है– “अबे , सुन बे, गुलाब, भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब, खून चूसा खाद का...

फूहड़ भीड़

जो कभी मशहूर थे, दिलकश अदाओं के लिए आज फूहड़ भीड़ की महफिल में खोकर रह गए ! मुद्दतों जिस ख्वाब की तामीर में उलझे रहे ख्वाब तब पूरा हुआ जब खाक बनकर रह गए ! दर्द का सैलाब ये सब कुछ डुबो देता मगर रिस के आखों में उतर के अश्क बनकर बह गए ! गुफ्तगू किस काम की जिसमें नहीं शिकवा गिला हर बार की तरह वही, हम सुन लिए, वो कह गए ! झूठ के बाजार में व्यापार सच का चल रहा  सच अगर बोला तो पीछे हाथ धोकर पड़ गए ! दे रहे खुद को दिलासा जुर्म जो खुद पर हुए हालात से मजबूर हैं बस इसलिए हम सह गए ! हम समझते थे जिन्हे मजबूत सी बुनियाद अपनी वक्त की ठोकर लगी वो भरभराकर ढह गए ! इंतहा की हद से आगे हिज्र में बैठे थे जिनकी वो मिले बस मुस्कुराए और आगे बढ़ गए !                               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’