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सब पढ़े सब बढ़े

लाख बाधाएं हमारे मार्ग को दुर्गम बनाएं  हम निरन्तर ही प्रगति के साथ पथ पर बढ़ रहे हैं ! प्राथमिक शिक्षा सभी को प्राप्त हो मंशा यही थी  और संसाधन बहुत सीमित थे पर हिम्मत बड़ी थी  छे से चौदह साल के बच्चों को को भी शिक्षित था करना  और आलोचक की नजरें भी सभी हम पर टिकी थी  किन्तु हम शिक्षक सदा ही लक्ष्य के प्रति दृढ़ रहे हैं  हम निरंतर ही प्रगति के साथ पथ पर बढ़ रहे हैं ! ये समय तकनीक का है, हम नहीं इसमें भी पीछे  प्रेरणा दीक्षा या निष्ठा को परस्पर हम हैं सीखे  स्वप्न आखों में लिए और लक्ष्य से आगे है जाना  बनके हम सब बागवां इस नस्ल को निज तप से सींचे नित नई संभावनाओं से भी ऊपर चढ़ रहे हैं  हम निरंतर ही प्रगति के साथ पथ पर बढ़ रहे हैं ! नव कपोलो की तरह बच्चों का बचपन खिल रहा है  जो कुपोषण को मिटा दे, एम.डी.एम वो मिल रहा है  हर किलोमीटर पे विद्यालय खुले बच्चों की खातिर  ज्ञान के सूरज के आगे अब अंधेरा ढल रहा है  'सार्थक' हो सीखना कुछ इस तरह सब पढ़ रहे हैं  हम निरंतर ही प्रगति के साथ पथ पर बढ़ रहे हैं ! लाख बाधाएं हमारे म...

दिल की बात

इस दुनियां में हर व्यक्ति अपने दिल की बात बोलना चाहता हैं। लेकिन समय बदलने के साथ-साथ लोगो ने अपने दिल की बात कहने का तरीका भी बदल दिया है। आजकल लोग किस प्रकार से अपने दिल की बात बोलते हैं, आज आपको बताता हूं- (1)मज़ाक़-मज़ाक में दिल की बात- आधुनिक दुनियां की सबसे ज्यादा आबादी आजकल मज़ाक में दिल की बात बोलती है। ऐसा करना लोगों की मजबूरी भी बन गई है। असल में आधुनिक दुनियां हर व्यक्ति( खास कर ऐसे लोग जो अंदर ही अंदर दगे जा रहे हैं कि वो बहुत बुद्धिमान हैं, और उनमे कोई कमी हो ही नहीं सकती है) अपनी आलोचना नहीं सुन सकते। ऐसे में आधुनिक सामाज में सच बोलने का एक नया चलन चला है, यानी मजाक मजाक में दिल की बात बोल दो, जिसे सुनकर सामने वाला बुरा ना मान पाए। ये कुछ वैसा ही है जैसा 'कतील शिफ़ाई' ने अपने एक शेर में कहा है- "इस तरह कतील उनसे बर्ताव रहे अपना  वो भी न बुरा माने,दिल का भी कहा करना" मजाक में कहा गया सच सामने वाले को दुविधा में डाल देता है। और इस तरह सच बोलने वाले व्यक्ति के सम्बंध अमुक व्यक्ति से खराब नहीं होते। (2) घुमा फिरा कर बोली गई दिल की बात - इस तरह दिल की बात बोल...

सपने में किसान

ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है ! दिन भर खेत में करता है काम  रात मे जानवरों से फ़सल को बचाने के लिए  खेत में ही सोता है ! जब कातिक में होगी फ़सल की कटाई  तब धूमधाम से करूंगा  बेटी की सगाई ! इसबार साहूकार से  बीबी के गहने भी छुड़वाऊंगा  उसे खुश करने के लिए  एक जोड़ी पायल भी लाऊंगा ! गांव के ज़मींदार का बेटा  छोटी साइकिल क्या चलाता है  उसका बेटा दिन रात उन्हीं के दरवाजे बना रहता है ! इस बार अगर फ़सल अच्छी हुई  तो ला दूँगा बेटे को  एक वैसी ही साईकिल नई ! मन ही मन ये सोच के  खुश होता है ! ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है ! लेकिन आ जाती है बाढ़  फ़सल हो जाती है तार तार  सपने टूट के बिखर जाते हैं  सीना दर्द से फट जाता है  पर चहरे पर सख्ती लिए  वो फिर भी नहीं रोता है ! ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है !          ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

निःशब्द

निःशब्द! है इसके अलावा और कोई शब्द  जो इस दर्द के पैमाने को  नाप सकता है ! स्तब्ध! है इसके अलावा  हृदय में कोई और भाव  जो इस पीड़ा को  आंक सकता है ! ध्वस्त! है कोई अर्थशास्त्री  इस धरती पर  जो इस नुकसान को  जान सकता है ! वीभत्स ! अस्तव्यस्त! खेतों में पानी नहीं  बह रहा है किसानों का रक्त  है कोई ऊपर वाला  जो इस दर्द को  कम कर सकता है !        ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

कहानी

सदियों पहले समाज के  चुनिंदा लोगों ने  लिख डाली हैं कुछ कहानियां  हमारी अपनी कोई कहानी नहीं  हम तो बस एक किरदार भर हैं जो उन कहानियों को कहते हैं  वही गिनी-चुनी कहानियां  वही गिने-चुने किरदार  वही घिसी-पिटी स्क्रिप्ट  थर्ड क्लास के दर्शकों के बीच  उसी रील को घिसते रहते हैं  पैदा होते ही दिखा दी जाती है  हमको एक दिशा, फिर बैठा दिया जाता है  बिन चंपू की नाव में  और लहरों के सहारे  निर्धारित दिशा में बहते रहते हैं अपनी कहानी और किरदार  कहीं अंदर दफन करके  समाज से मान्यता प्राप्त  कहानियों को क्रत्रिम रूप से जीकर  लगे हैं समाज को खुश करने में  पर अंदर ही अंदर दर्द सहते रहते हैं फिर भी दूसरों की कहानियां कहते रहते हैं                   ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

मजबूती का नाम महात्मा गाँधी

गाँधी! तुम मजबूरी के पर्यायवाची  कैसे हो सकते हो? मजबूर तो वो हैं जो  अंदर ही अंदर तुमसे जलते हैं  पर तुम्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते  मजबूर तो वो हैं जो  सदियों से लगे हैं तुम्हारे नाम को मिटाने में  लेकिन तुम्हारी आभा के सामने टिक नहीं सकते  गाँधी! तुमको मजबूर समझने वाले  असल में मगरूर हैं, अपनी नासमझ अक्ल पे  तुमको मजबूर समझने वाले,  असल में मजदूर है अपनी वहशी सोच के  गाँधी! तुम तो दृढ़ हो अपने दिल से  तुम तो बल हो निर्बल के  किसी एक के नहीं तुम हो सबके  कामचोरी भ्रष्टाचार साम्प्रदायिकता को तिनके की तरह उड़ा दे  तुम्हारे नाम में वो आँधी है सच तो ये है कि मजबूती का नाम महात्मा गाँधी है !                      ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'              

अस्त अफगानिस्तान

मैंने अब तक गिनी चुनी ही इंग्लिश लिटरेचर की बुक पढ़ी हैं जिनमें से एक 'द काइट रनर'भी है। खालिद हुसैनी द्वारा लिखी 'the kite runner' मात्र एक उपन्यास भर नहीं है, ये आपको अफगानिस्तान की अवाम के जड़ से जुड़े द्वन्द्व और वहाँ की कबीलाई जनजाति और गुटों के बीच सदियों से चले आ रहे संघर्ष से भी रूबरू कराती है। खालिद हुसैनी साहब ने the kite runner कुछ इस तरह लिखा है कि ये आपके हृदय के गहरे तल में छुपी संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती है। ऐसा हो नहीं सकता कि आप इसको पढ़ कर भावुक न हों। इस किताब की लोकप्रियता का इससे भी अंदाजा लगता है कि बाद मे हॉलीवुड वालों ने इसी नाम से (the kite runner) एक फिल्म भी बनाई। हालाकि फिल्म की स्टोरी पूरी वही है लेकिन उसमें बुक वाली बात नहीं है। खैर अब जब तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है। और भारतीय मीडिया हफ्ते भर से यही खबर चीख चीख के बता रहा है।ऐसे मे मेरे दिल मे बार-बार आज से आठ साल पहले पढ़ी the kite runner ही घूम रही है। ये बात तो आश्चर्यचकित करने वाली ही है कि एक तरफ तो एयरपोर्ट और बोर्डर पर अफगानिस्तान की अवाम देश छोड़ने के लिए छटपट...