Posts

सपने में किसान

ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है ! दिन भर खेत में करता है काम  रात मे जानवरों से फ़सल को बचाने के लिए  खेत में ही सोता है ! जब कातिक में होगी फ़सल की कटाई  तब धूमधाम से करूंगा  बेटी की सगाई ! इसबार साहूकार से  बीबी के गहने भी छुड़वाऊंगा  उसे खुश करने के लिए  एक जोड़ी पायल भी लाऊंगा ! गांव के ज़मींदार का बेटा  छोटी साइकिल क्या चलाता है  उसका बेटा दिन रात उन्हीं के दरवाजे बना रहता है ! इस बार अगर फ़सल अच्छी हुई  तो ला दूँगा बेटे को  एक वैसी ही साईकिल नई ! मन ही मन ये सोच के  खुश होता है ! ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है ! लेकिन आ जाती है बाढ़  फ़सल हो जाती है तार तार  सपने टूट के बिखर जाते हैं  सीना दर्द से फट जाता है  पर चहरे पर सख्ती लिए  वो फिर भी नहीं रोता है ! ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है !          ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

निःशब्द

निःशब्द! है इसके अलावा और कोई शब्द  जो इस दर्द के पैमाने को  नाप सकता है ! स्तब्ध! है इसके अलावा  हृदय में कोई और भाव  जो इस पीड़ा को  आंक सकता है ! ध्वस्त! है कोई अर्थशास्त्री  इस धरती पर  जो इस नुकसान को  जान सकता है ! वीभत्स ! अस्तव्यस्त! खेतों में पानी नहीं  बह रहा है किसानों का रक्त  है कोई ऊपर वाला  जो इस दर्द को  कम कर सकता है !        ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

कहानी

सदियों पहले समाज के  चुनिंदा लोगों ने  लिख डाली हैं कुछ कहानियां  हमारी अपनी कोई कहानी नहीं  हम तो बस एक किरदार भर हैं जो उन कहानियों को कहते हैं  वही गिनी-चुनी कहानियां  वही गिने-चुने किरदार  वही घिसी-पिटी स्क्रिप्ट  थर्ड क्लास के दर्शकों के बीच  उसी रील को घिसते रहते हैं  पैदा होते ही दिखा दी जाती है  हमको एक दिशा, फिर बैठा दिया जाता है  बिन चंपू की नाव में  और लहरों के सहारे  निर्धारित दिशा में बहते रहते हैं अपनी कहानी और किरदार  कहीं अंदर दफन करके  समाज से मान्यता प्राप्त  कहानियों को क्रत्रिम रूप से जीकर  लगे हैं समाज को खुश करने में  पर अंदर ही अंदर दर्द सहते रहते हैं फिर भी दूसरों की कहानियां कहते रहते हैं                   ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

मजबूती का नाम महात्मा गाँधी

गाँधी! तुम मजबूरी के पर्यायवाची  कैसे हो सकते हो? मजबूर तो वो हैं जो  अंदर ही अंदर तुमसे जलते हैं  पर तुम्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते  मजबूर तो वो हैं जो  सदियों से लगे हैं तुम्हारे नाम को मिटाने में  लेकिन तुम्हारी आभा के सामने टिक नहीं सकते  गाँधी! तुमको मजबूर समझने वाले  असल में मगरूर हैं, अपनी नासमझ अक्ल पे  तुमको मजबूर समझने वाले,  असल में मजदूर है अपनी वहशी सोच के  गाँधी! तुम तो दृढ़ हो अपने दिल से  तुम तो बल हो निर्बल के  किसी एक के नहीं तुम हो सबके  कामचोरी भ्रष्टाचार साम्प्रदायिकता को तिनके की तरह उड़ा दे  तुम्हारे नाम में वो आँधी है सच तो ये है कि मजबूती का नाम महात्मा गाँधी है !                      ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'              

अस्त अफगानिस्तान

मैंने अब तक गिनी चुनी ही इंग्लिश लिटरेचर की बुक पढ़ी हैं जिनमें से एक 'द काइट रनर'भी है। खालिद हुसैनी द्वारा लिखी 'the kite runner' मात्र एक उपन्यास भर नहीं है, ये आपको अफगानिस्तान की अवाम के जड़ से जुड़े द्वन्द्व और वहाँ की कबीलाई जनजाति और गुटों के बीच सदियों से चले आ रहे संघर्ष से भी रूबरू कराती है। खालिद हुसैनी साहब ने the kite runner कुछ इस तरह लिखा है कि ये आपके हृदय के गहरे तल में छुपी संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती है। ऐसा हो नहीं सकता कि आप इसको पढ़ कर भावुक न हों। इस किताब की लोकप्रियता का इससे भी अंदाजा लगता है कि बाद मे हॉलीवुड वालों ने इसी नाम से (the kite runner) एक फिल्म भी बनाई। हालाकि फिल्म की स्टोरी पूरी वही है लेकिन उसमें बुक वाली बात नहीं है। खैर अब जब तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है। और भारतीय मीडिया हफ्ते भर से यही खबर चीख चीख के बता रहा है।ऐसे मे मेरे दिल मे बार-बार आज से आठ साल पहले पढ़ी the kite runner ही घूम रही है। ये बात तो आश्चर्यचकित करने वाली ही है कि एक तरफ तो एयरपोर्ट और बोर्डर पर अफगानिस्तान की अवाम देश छोड़ने के लिए छटपट...

अति सर्वत्र वर्जयेत्

साक्ष्य तो नहीं है पर सुना है जब दुर्घटनावश कालिदास की जुबान देवी के मंदिर में कट कर गिर गई तो देवी ने प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा। कालिदास ने विद्योत्मा को माँगा लेकिन जुबान कटी होने के कारण वो विद्या ही बोल पाए। इस तरह देवी उन्हें विद्वान होने का वरदान देकर चली गई। पर कहानी यही खत्म नहीं हुई। कहा जाता है कि कालिदास को इतनी विद्या मिल गई कि वो जो कुछ भी लिखते उससे संतुष्ट नहीं होते। उन्हें अपने लिखे में ही कमियां नजर आने लगती। उनकी मानसिक हालत इतनी खराब हो गई कि वो अपने ज्ञान से ही पागल होने लगे। ये कहानी मुझे मेरी दादी सुनाया करती थी। उन्हीं के अनुसार जब कालिदास बहुत परेशान हो गए तो उनको किसी पंडित ने लगातार "कुंदरू" की सब्जी खाने की सलाह दी।पंडित ने कालिदास को बताया कि कुंदरू की सब्जी खाने से बुद्धि कुंद यानी कम हो जाती है। इस तरह कालिदास ने अपनी बुद्धि को कुंदरू खाकर कंट्रोल किया। खैर ये कहानी सही है या गलत मुझे नहीं पता पर इस कहानी का मेरे बाल मन के ऊपर इतना फर्क़ जरूर पड़ा कि मैंने बचपन में कुंदरू खाना बंद कर दिया था। मैं नहीं चाहता था कि जो थोड़ी बहुत बुद्धि है वो...

आधुनिक चीरहरण

कुरु सभा में चीरहरण के समय  अवसरवादी चुप थे क्योंकि  दुर्योधन उनकी पार्टी का नेता था ! बड़के तीसमार खां भी चुप रहे क्योंकि  दुर्योधन उनकी आय से अधिक  संपत्ति की जांच करवा देता ! केंद्र की सत्ता में बैठे  दुर्योधन के बाप ने भी आखें बंद कर रखी थी क्योंकि  दुर्योधन ही विधानसभा चुनाव जीता सकता था ! बुद्धिजीवी भी चुप ही रहे क्योंकि  दुर्योधन जैसे दुष्ट के मुह लगके  वो अपनी इज्जत नहीं कम करना चाहते थे ! विपक्ष भी थोड़ा बहुत सोशल मीडिया  पर उछल कूद करके शांत हो गया क्योंकि  विपक्ष कायर था और दुर्योधन से डरता था ! बची वहाँ की जनता  तो वो भी चुप रही क्योंकि  कोऊ नृप होय उन्हे का हानी !                         ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'                    ©️