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व्यवहारिक ज्ञान

जो आप को जानबूझकर  अर्थिक क्षति पहुंचाए जो आप की सरलता का नाजायज़ फायदा उठाए ! जो बात बात पर अपना  दो कौड़ी का अहसान जताए  जो आप की विनम्रता को  आप की कमजोरी बताए ! जो केवल अपने निजी स्वार्थवश  आप से चिपकने आए  जो मुह पर आप की बोले और  पीठ पीछे आप का प्रपंच गाए ! जो आप की संवेदनशीलता का  कुटिलता से मखौल उड़ाए  जो आप के बुरे वक़्त में  मौके का फायदा उठाए ! वो चाहे मित्र हो या रिश्तेदार हो  भाई हो या पट्टीदार हो  उसे पलभर में ही छोड़ देना चाहिए  और सारे रिश्ते तोड़ लेना चाहिए !                 ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

तुम क्या जानो

तुम कायदे कानून में लिपटे  अपने सामाजिक दायरे तक सिमटे  दकियानूसी परम्पराओं से चिपटे  अपनी अंतरात्मा से छिपते  और प्रेम पर भाषण देते हो  तुम क्या जानो प्रेम क्या है तुम प्रेक्टिकल ज्ञान को पकड़े  स्टेट फॉरवर्ड सोच से जकड़े  बात बात पर कर के झगड़े  अपनी झूठी ऐंठ में अकड़े  और संवेदनशील होने की बात करते हो  तुम क्या जानो संवेदना क्या है  तुम न कभी अंदर से टूटे  ना कभी अपनों से छूटे  न ठोकर खाई न बिखरे  न कभी घाव खाए गहरे  और दर्द भरी बातें करते हो  तुम क्या जानो दर्द क्या हैं !                ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'          

फरेबी रोना

मारीच भी रोया था  फरेब फैलाने के लिए कैकई भी रोई थी  आग लगाने के लिए ! रोई तो मंथरा भी थी  फूट डालने के लिए  ऐसे ही सियार रोते है  शोर मचाने के लिए ! अब रोने का मनोविज्ञान  समझ लेना चाहिए ! जब नीच रोये  तब द्रवित नहीं होना चाहिए !             ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

मेरी गर्दन हुसैन है

जो जुर्म की हैवानियत से है तेरा वज़ूद  तो रूह मेरी दीन के लिए बेचैन है  तू तो हराम से बनी दौलत पे है फिदा  मुझको तो मुस्तफ़ा के ही सज़दे में चैन है  जो खौफ़ से भरी तेरी तलवार है यज़ीद तो फक्र से तनी मेरी गर्दन हुसैन है कुछ भी नहीं तेरा समझ ले कायनात में  जो कुछ भी है रसूल की रहमत की देन है                    ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

नया सवेरा

मौत का मंजर है फैला  हर तरफ छाया अंधेरा  काश दिन इक नया आए  प्यार का लेकर सवेरा  दर्द के दोजख में सिमटी जा रही है जिंदगानी  आंख इतना रो चुकी  बाकी नहीं एक बूंद पानी  वेदना बेदर्द ने  उम्मीद को है रौंद डाला  बेबसी बहती रगों से  रिस रही मरती जवानी  अब उजड़ता जा रहा है  ख्वाब का हर एक बसेरा  काश दिन इक नया आए  प्यार का लेकर सवेरा ! अब तलक जो साथ थे  तिनके के माफिक बह गए हैं  वक्त के तूफान से  एक बार में ही ढ़ह गए हैं  थी गलतफ़हमी जिन्हें  वो धाम लेंगे आसमाँ को  अपने घर की छत गिरी  और हाथ मलते रह गए हैं  हौसले की जमा पूंजी  ले गया कोई लुटेरा  काश दिन इक नया आए  प्यार का लेकर सवेरा !               ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
साहब की आलोचना सुनकर आजकल भक्तों की मनःस्थिति कैसी है - (1) दार्शनिक भक्त - ऐसे भक्त आजकल दार्शनिक हो गए हैं। " सब मोह माया है ..तुम क्या लेकर आए थे तुम क्या लेकर जाओगे। महामारी इसीलिए फैली है क्योंकि पाप भी बहुत बढ़ गया था। इसमे भला सत्ता सरकार क्या कर सकती है।" (2) अर्थशास्त्री भक्त - ऐसे भक्त देश की अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन प्रस्तुत करके सरकार का बचाव करते हैं।"टेक्स आ नहीं रहा है व्यापार चौपट है तो ऐसे मे साहब क्या कर सकते हैं।" (3) कर्त्तव्य परायण भक्त- " सरकार की तरफ मुह उठाकर क्या देखते हैं सब। हर किसी को अपना कर्तव्य निभाने की जरूरत है। ये टाइम सरकार की गलतियां निकालने का नहीं है।" (4) इतिहासकार भक्त - "सब नेहरू की गलती है। 70 साल देश के लिए कुछ किया ही नहीं।" (5) गुस्साया हुआ भक्त - "हमसे बुराई मत करना..वर्ना मार हो जाएगा। साहब जो करते हैं अच्छा ही करते हैं।" (6) सुलझा भक्त - देखिए और कोई विकल्प भी तो नहीं है।सब चोर हैं।" (7) आशान्वित भक्त - "अरे इन सब बीमारियो से मत डरो। वो कहावत नहीं सुनी ," सब संवत लगे बीसा.....

बेबसी

बेबस जनता और न्यायालय  बेबस चुनाव आयोग हुआ  बेबसी के मारे शिक्षक हैं  बेबस गरीब मज़दूर हुआ ! बेबसी में डूबा संविधान  तानाशाही से चूर हुआ  बेबस चौथा स्तम्भ दिखे  उसके हाथो मज़बूर हुआ ! बेबसी पे करता अट्टहास  राजा कितना मगरूर हुआ  बेबस लोगों की पीड़ा से  हर तरह से वो दूर हुआ !         ©️ सार्थक