हिजाब
इन सब नकारात्मक प्रचार का दुष्प्रभाव आम जनमानस के दिल दिमाग पर इस तरह फैला की वहाँ के लोगों को ये सब जो कुछ यहूदियों के बारे मे कहा जाता था..वो सब सच लगने लगा। पर इससे भी बुरा ये था कि यहूदियों पर इतना अत्याचार हुआ कि उनको भी इस दुष्प्रचार पर विश्वास होने लगा। उन्हें भी लगने लगा कि जरूर उनकी नस्ल सबसे खराब नस्ल है...उनको भी लगने लगा कि शायद उनकी नाक उल्टा सेवन की जैसी ही है।
कुछ यही हाल किसी समय भारत में रैडिकल जातिवादी विचारों का भी था। ब्राह्मणवाद अपने चरम पर था। दलित अलग गंदी बस्तियों में रहने को मजबूर थे। यहां तक जब भी कोई दलित सवर्ण बस्ती में जाता था तो उसको ध्यान रखना होता थी कि उसकी परछाई कहीं किसी ऊंची जाति के व्यक्ति पर ना पड़ जाए। वो सवर्ण बस्ती में थूक भी नहीं सकता था। मटकी साथ में ले जाना पड़ता था। ऐसा न करने पर उसे दण्डित किया जाता था।जातिवाद को कड़ा और मजबूत बनाने के लिए पूर्व जन्म के पाप पुण्य के सिद्धांत को अपनाया गया।
इसका प्रभाव ये हुआ कि दलित भी ये समझने लगा कि जरूर उसने पूर्व जन्म में पाप किए हैं इसलिए वो इस जाति में पैदा हुआ है। अगर अच्छे कर्म करेगा तो अगले जन्म में ऊँची जाति में पैदा होगा।कई समाजशास्त्रियों ने शोध में पाया कि गरीब अनपढ़ दलित इस व्यवस्था को सच मान बैठे थे। उन्होंने अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को अपनी की कमी के रूप में स्वीकार कर लिया था।
मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिजाब के समर्थन में नारे लगाना। तीन तलाक कानून का विरोध करना उनकी इसी मनोदशा का परिचायक है। उन्होंने इस पुरुषवादी व्यवस्था का जिसमें पुरुष जितनी चाहे उतनी शादी कर ले। जब चाहे तब तलाक दे दे, अपना खुल्लमखुल्ला घूमे और उसे जेठ के महीने में काला बुर्का पहनकर निकलने को कहे। इसे स्वीकार कर लिया है। हालत ये है कि उनको यही नहीं पता चल रहा है कि उनका शोषण हो रहा है।
लेकिन परिवर्तन को कोई नहीं रोक सकता। धीरे-धीरे ही सही एकदिन उनमें भी चेतना आएगी। वो भी देख पाएंगी की उनका समाज उनका शोषण कर रहा है। फिर किसी को कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।सब महिलाएं ही कर लेंगी।
©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
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