चेतना

सती प्रथा का भारतीय समाज में बोलबाला था। कब्र में पैर लटकाए बूढे अपनी काम पिपासा को शांत करने लिये कम उम्र की लड़कियों से शादी करके जल्दी ही मर जाते थे। उनके साथ उन विधवाओं को भी जबरदस्ती जला दिया जाता था। अंग्रेज सरकार भी इसे हिन्दुओ का व्यक्तिगत मामाला समझ कर बहुत दिन तक नजरअंदाज करती रही।
जब राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरोध में आवाज उठाई तो उस समय के हिन्दू समाज में उनकी बहुत बुराई हुई। राज राममोहन राय के विरोध में 1928 ई में राजा राधाकांत देव ने "धर्म सभा" की स्थापना करके "शब्दकल्पद्रूम" के संपादन के माध्यम से सती प्रथा का पुरजोर समर्थन किया। इस बात को  इस तरह पेश किया गया कि सती प्रथा का विरोध करना..हिन्दू धर्म का विरोध हो गया। अचरज की बात ये थी कि उनके इस अभियान के समर्थन में महिलाएं भी शामिल थी..जबकि सती प्रथा से उनको ही मुक्ति मिलती। लेकिन धर्म की अफीम ही ऐसी है जो कुछ भी करा सकती है। हाँ इतना जरूर है, नशा चाहे जितना तगड़ा क्यों न हो..एक न एक दिन उतरता जरूर है।
राजा राममोहन राय के प्रति विरोध का आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि उनके खुद के पिता ने भी उनका विरोध किया। लेकिन राजा राममोहन राय किसी से नहीं डरे..उनको कोई चुनाव जो नहीं लड़ना है। अच्छा ही हुआ जो उस समय चुनाव नहीं होते थे। 
ऐसे ही कुछ हालातों का सामना ईश्वर चंद विद्यासागर को भी करना पड़ा। विधवा पुनर्विवाह के उनके प्रयासों पर सबसे पहला विरोध हिंदू महिलाओं द्वारा ही किया गया। उन्होंने एक बार देखा कि 10 साल की एक बच्ची को जंजीरों में बाँध कर रखा गया था। जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो पता चला कि वो विधवा है और वो एकादशी के व्रत वाले दिन पानी पीने के लिए जिद कर रही थी। इसीलिए उसे उसके घर की महिलाओं द्वारा ही बाँध कर रखा गया था।
ईश्वरचंद विद्यासागर ने हिन्दू संगठनों को समझाने के लिए अथक प्रयास किया। यहां तक अपनी बात तो सही साबित करने के लिए उन्होंने अपने इकलौते बेटे की शादी एक विधवा लड़की से कर दी।
इतिहास गवाह है कुप्रथाएं और रूढ़िवादी विचार अपनी सामजिक कुरीतियों रूपी गंदगी के पक्ष में लगातार तर्क देती रहीं हैं। ये सभी ताकतें परिवर्तन के खिलाफ होती हैं। 
लेकिन परिवर्तन तो होकर रहता है। उदाहरण के लिए सऊदी अरब को ही लेलें। वहाँ का कानून था कि महिलाएं खुद से कार नहीं चला सकती हैं। लेकिन वहाँ की जागरूक महिलाओं ने जब इसका जबरदस्त विरोध करना शुरू कर दिया। तब वहाँ की सरकार को दबाव में आकर उन्हें ये अधिकार देना पड़ा। मार्क्स ऐसी ही चेतना की बात करता है। उनका मानना है कि शोषण तभी तक हो सकता है जबतक शोषित समाज उसे होने देता है। जिस दिन उनमें चेतना आ गई.. उसके बाद कोई पाखंड काम नहीं आता।

                        ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

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