शक्ति वंदना
सजल सदा वो प्रेम में सरल भी है सशक्त है
सात सुर इसी के उर में साज संग सरस्वती
शस्त्र जो उठा ले सारी श्रृष्टि ही निशस्त्र है
सूक्ष्म है कभी, कभी समग्रता स्वभाव में
कभी-कभी वो कुछ नहीं कभी-कभी समस्त है
सहेजती है स्वप्न को वो शोक सारे त्याग के
सहज ही सारे श्रम करे कभी न वो निःशक्त है
समेट ले सहर्ष सब दुःखों को ऐसी संगिनी
है श्रोत वात्सल्य का वो भाव से सहस्त्र है
शत्रु शीश काट रक्त से धरा को सींच दे
दुष्ट दुर्जनों को जो डरा दे ऐसा अस्त्र है
सुबोधनी सुयोग्यनी सुसंगठित संजीवनी
सुसज्जितनी सुलक्षणी सुलोचनी सुभक्त है
स्त्रियों से ही प्रकाशमय हुई वसुंधरा
स्त्रियों बिना समाज शक्तिहीन अस्त है
©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
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