चुनावकर्मी की दुर्दशा
एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा खलती है वो ये है कि कर्मचारी भी जानते हैं कि वो इस चुनाव में बहुत परेशान होंगे..लेकिन फिर भी इस परेशानी को सहजता से स्वीकार कर कर लेते हैं। और इस परेशानी के पक्ष में तर्क ये देते हैं कि, "क्या किया जाए...सब परेशान हैं, हम अकेले तो परेशान हैं नहीं!"
ये वही फिल्मी गाने का दार्शनिक भाव है जिसमें बताया गया है कि "दुनियां में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है..लोगों का गम देखा तो मैं अपना गम भूल गया !"
कहने का मतलब है कि इस देश में सामुहिक परेशानी या सामुहिक समस्या को कोई परेशानी माना ही नहीं जाता। कुछ वैसे ही जैसे महामारी में सब मर रहे हैं ..अगर तुम मर गए तो कौन सी बड़ी बात है। लेकिन अगर कड़े शब्दों मे सच कहूँ तो सामुहिक परेशानी...सामुहिक बलात्कार के जैसी गंभीर समस्या होती है। इसी सामुहिक परेशानी का बहाना बनाकर लाल फीता साही कर्मचारियों का शोषण करती है। और करोड़ों रुपए खा जाते हैं। क्योंकि निर्वाचन में आने वाले पैसे का ऑडिट नहीं होता। और इसी तरह निर्वाचन में लगे कर्मचारियों की पीड़ा का भी ऑडिट कोई नहीं करता।
सोचने वाली बात है एक सीतापुर जैसे जिले में जिसमें 19 ब्लॉक हैं। वहाँ पर केवल एक जगह डिस्ट्रिक्ट हेडक्वार्टर पर एक ही जगह बीसों हजार कर्मचारियों को बुलाकर उनको एक ही गेट से आने जाने के लिए खोल कर,चुनाव सामग्री दी जाती हैं और फिर उनसे एक ही जगह जमा भी करवाई जाती है। अगर नियत और नीति ठीक होती तो कम-से-कम यही काम हर तहसील पर ही किया जा सकता था, जिससे इतनीभीड़ न होती। और आदर्श व्यवस्था में होना तो ये चाहिए था कि हर बूथ तक टीमें बनाकर EVM और सामग्री पहुंचानी चाहिए। और उसे कलेक्ट भी करना चाहिए..बजाय इसके कि बीसों हजार लोगों को एक मैदान मे बुलाकर कीड़े मकौड़ों की तरह छोड़ दिया जाए।
और उसपर भी चुनाव के एक दिन पहले पहुंचकर अगले दिन चुनाव कराकर वापस आए थके हारे कर्मचारियों को EVM जमा कराने के किये एक बेहद दयनीय और हास्यास्पद व्यवस्था से गुजरना पड़ता है।
EVM जमा कराने के लिए बनाए गए स्टालों पर बैठे लोग उस एक दिन के असली साहब होते हैं। अपने कंधे पर EVM लादे भीड़ में खड़े कर्मचारियों को बेहद छोटी और मामूली काग़ज़ के कमी के नाम पर वापस लौटा दिया जा रहा था।
उनकी बाते भी 'धमाल' मूवी में इमर्जेंसी में प्लेन की सहायता के लिए लगाए गए कैरेक्टर की तरह थी।
जैसे वो बोलता है, "आपको प्लेन में एक लाल बटन दिख रहा है?
बबन बोलता है, " हाँ...हाँ दिख रहा है, दबा दिया! "
वो बोलता है, " नहीं दबाना था..अब आपका मेन इंजन बंद हो गया है।"
कुछ यही हाल EVM जमा करा रहे लोगों का था, " आपके फलाने काग़ज़ का वो लिफाफा सील किया है ?"
लाइन में लगा कर्मचारी - " हाँ हाँ सर, सील किया है !"
जमा करने वाला- " नहीं सील करना था.. वापस जाइए !"
विश्वास मानिये मैंने अपनी आंखों से पहली बार लाइन में लगे भूखे प्यासे बुजुर्ग कर्मचारियों द्वारा उन गधो को अपना बाप बनाते देखा है। उनके आगे गिड़गिड़ाते देखा है..."अरे सर जमा कर ली लिए..प्लीज सर " करते देखा है।
ऐसी अपंग और भद्दी व्यवस्था को जलाकर राख कर देना चाहिए। पांच साल में कम-से-कम तीन बार लगभग हर कर्मचारी को इस गंदगी के सीवर से गुजरना ही पड़ता है। इसलिए निर्वाचन आयोग को चाहिए कि चुनाव से पहले कर्मचारियों के एक प्रतिनिधि मंडल से मिलकर उनसे जुड़ी समस्याओं को सुनना चाहिए और समय के साथ उसमें सुधार करते रहना चाहिए। वर्ना ये व्यवस्था ऐसे ही चलती रहेगी। कर्मचारी पिसते रहेंगे..चुनाव होते रहेंगे।
©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
Bahut badhiya sarthak ji. Maine bhi ye jhela uss din
ReplyDelete🙏 जी सर!
Deleteयही तो दुख है..सब परेशान है
सही कहा दोस्त, मेरे पोलिंग बूथ वाली छोटी सी बस में भी सात पार्टियां थी
Deleteबिलकुल सही कहा आपने,, यही हाल होता है
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteKARONA KODEKHATEHUYEKIYAGSYATHA
DeleteMujhe pichle do bar se Peethaseen ne meraa paisa nhi diya bolte hain saman jma hone k bad denge
ReplyDeleteUtni rat tk rukma hm ladies k liye possible nhi hota
Eskinkoi sunwayi hai
ये तो बहुत गलत बात है।
Deleteऐसा तो पीठासीन को एकदम शोभा नहीं देता।
आपकी पोस्टिंग कहा है?
यथार्त चित्रण 🙏
ReplyDeleteSir
ReplyDeleteYe karm chari nhi gulam h , inko kuch kahne ka adhikar nhi h. Yaha sirf ji sir suna jata h no ka koi option nhi h.
Right Sir...
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteEvm ko le jane k liye 1-2 km tk paidal jana
ReplyDeleteOr wapas se room tk 6 km paital aana
Wastav me bahut hi pidadayi tha..
Upr se evm jma kra kr wapas aate samay mrte mrte bachi hu..
Isko dekhne or sunne wala koi nhi h
यही तो दुःख की बात है।
ReplyDeleteसही बात है भैया चुनाव आयोग को इस पर ध्यान देना चाहिए
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