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प्रेम का प्रारूप

हर दिल में बसता प्यार है ये  सागर में उठे तरंग कई बिखरे हैं इसमें रंग कई कहने के इसके ढंग कई इसमें रहते हैं तंग कई पर जीवन का आधार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये ! जलते-बुझते अंगारों सा पतझड के बीच बहारों सा प्रतिपल मजबूत सहारों सा बिन मौसम राग मल्लारों सा दिल में बजती झंकार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये ! शब्दों का इसमें काम नहीं इसमें इक पल आराम नहीं इससे बढ कर इल्ज़ाम नहीं फिर भी कुछ कहीं हराम नहीं हर बंधन के उस पार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये ! अपनें तक सीमित राज़ यही नव जीवन का आगाज़ यही लाखों संगत का साज़ यही दिल से निकली आवाज यही आनन्दमयी संसार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये ! इसकी अविरल सी धारा है उम्मीदों भरा इशारा है नीरसता नहीं गंवारा है मन्दिर मस्ज़िद गुरूद्वारा है गीता कुरान का सार है ये हर दिल में बसता प्यार है ये !                © दीपक शर्मा 'सार्थक'

मदीने की वजह भूल गए

जिंदगी जीते जी , जीने की वजह भूल गए चाक दिल सिल रहे, सीने की वजह भूल गए दर्द ए गम से मिले फुर्सत, गए मैखाने को इस कदर पी लिया, पीने की वजह भूल गए ! मुझे मुजरिम की तरह रोज़ बुलाता मुंसिफ इतना दौड़े कि, सफ़ीने की वजह भूल गए ! जो ये मजदूर हैं दिनभर हैं दिहाड़ी करते मिली मजदूरी, पसीने की वजह भूल गए सिर्फ दाढ़ी को ही वो दीन समझ बैठे जब ऐसा उलझे कि मदीने की वजह भूल गए                      © दीपक शर्मा ’सार्थक’

कच्ची दारू कच्ची वोट

लोकतंत्र को बना के कीचड़ सुअर के जैसे रहें हैं लोट कच्ची दारू..कच्चा वोट पक्की दारू..पक्का वोट मुर्गा दारू..खुल्ला वोट ! जाति कहीं यदि प्रत्याशी की उनसे मेल नहीं खाती मुद्दों पर ही वोट पड़ेगा सोच के नीद नहीं आती जाति उन्हीं की सर्वेसर्वा बाकी सब में खोट ही खोट इक दूजे को रहें हैं नोच जाति ने नाम पे पड़ेगा वोट गर्त में देश, नहीं अफसोस ! सुचिता बैठी सोच रही है कितने लीचड़ हैं ये लोग शर्म बेच के, मर्यादा का गला दिया है खुद ही घोंट था जमीर पहले ही गिरवी बेचा मत, कुछ पाकर नोट नशे में रहते हैं बेहोश देश की नीव रहें हैं खोद फिर नेता का देंगे दोष !           © दीपक शर्मा ’सार्थक’

किसान का दर्द

दर्द किसान का राम ही जाने सब्र का बांध गया है फूट ! बिन मौसम मल्हार गा रहे इंद्र देवता जबसे  वज्रपात ओला बारिश की झड़ी लग गई तबसे फसल बेच, बेटी ब्याहेगा सपने सारे गए हैं टूट  दर्द किसान का राम ही जाने सब्र का बांध गया है फूट (१) औने–पौने भाव बिक गए चना बाजरा तिलहन गिरवी खेत हुआ, खर्चे से व्याकुल हुआ है तन–मन थे किसान, मजदूर हो गए साहूकार रहा है लूट दर्द किसान का राम ही जाने सब्र का बांध गया है फूट (२) खड़ी फसल चर गए जानवर घर ना आया दाना कहीं बाढ़ तो कहीं है सूखा  मुश्किल है सह पाना दुगनी आय हुई खेतिहर की युग का सब से बड़ा है झूठ दर्द किसान का राम ही जाने सब्र का बांध गया है फूट (३)          ©दीपक शर्मा ’सार्थक’

रौशनी से नहाए हुए हैं

हक़ीकत से नज़रें चुराए हुए हैं ज़खम हर किसी से छुपाए हुए हैं जो हमदर्द बनकर चले साथ मेरे है सच हम उन्हीं के सताए हुए हैं ये खंडहर कभी थे मीनार-ए-मोहब्बत सितमग़र के हाथो गिराए हुए हैं बहुत ही घिनौनी हक़ीकत है जिनकी शराफ़त के चहरे लगाए हुए हैं नहीं है वज़न जिनकी बातों में एकदम वही शोर तबसे मचाए हुए हैं मदद में जो उनकी, था आया उसे ही बली का वो बकरा बनाए हुए हैं कभी सूरत-ए-हाल बदलेगा इक दिन उसी के ही सपने सजाए हुए हैं भले दर्द सह के जले बनके ’दीपक’ मगर रौशनी से नहाए हुए हैं                     © दीपक शर्मा ’सार्थक’

भवसागर भी तर जायेंगे

भवसागर भी तर जाएंगे  यदि आप हमें मिल जाएंगे लम्हों की बात नहीं है ये आजीवन तुमको पूजा है हो भीड़ भले जग में कितनी प्रतिपल तुमको ही खोजा है जितने भी घाव हृदय के हैं पाकर तुमको सिल जाएंगे भवसागर भी तर जाएंगे  यदि आप हमें मिल जाएंगे (१) जो चित्र बसा चित में मेरे हर दृष्टि में वो ही दिखते हैं इन गीत गज़ल और छंदों में अभिव्यक्त तुम्हें ही करते हैं हर पुष्प हृदय के उपवन में तुम देखो बस खिल जाएंगे भवसागर भी तर जाएंगे यदि आप हमें मिल जाएंगे (२)             © दीपक शर्मा ’सार्थक’

दधीचि और दान

भारत सदा से ही ऋषि मुनियों दार्शनिकों और विद्वानों की भूमि रही है। इस बात को ऐसे भी समझ सकते हैं कि जब पूरा यूरोप, जो खुद को आधुनिक सभ्यता के विकास का इंजन समझ रहा है, वो आज से 2500 साल पहले जब मात्र पेट भरने के लिए दर–दर भटकते खानाबदोश वाला जीवन जी रहा था। तब भारत में वेदों के साथ–साथ चार्वाक, न्याय,जैन, बौद्ध जैसे दर्शनों का उद्भव हो चुका था। इसी वैदिक परंपरा में आज के उत्तर प्रदेश के जिला सीतापुर का पवित्र नैमिषारण्य स्थान अट्ठासी हजार ऋषि मुनियों की तपस्थली हुआ करता था। और इसी के पास स्थित मिश्रिख में महर्षि दधीचि का आश्रम था। एक ऐसे महर्षि जो त्याग और दान पर्याय हो गए।जिन्होंने लोकहित में जीते जी अपनी अस्थियों तक का दान कर दिया।  महर्षि दधीचि को समझने से पहले ये समझना जरूरी है कि आखिर दान क्या है ? इसे महाभारत काल की एक छोटी सी कहानी से समझते हैं। कर्ण के दानवीर होने का यश चारो ओर फैला था। अर्जुन को इससे ईर्ष्या हुई, और एक दिन वो कृष्ण से बोले, “प्रभु! लोग बिना मतलब ही कर्ण के दानवीर होने का यशगान करते फिरते हैं, जबकि मेरे बड़े भाई सम्राट युधिष्ठिर कर्ण से कई गुना ज्यादा रोज द...