व्यथित मन
जब बोल नहीं निकले मुंह से जब शब्द खतम हो जाते हैं जब छिन्न–भिन्न होकर सपने आंखों में ही खो जाते हैं जब चित्त अस्थिर होने से एकाकी हम हो जाते हैं जब मन इतना व्याकुल हो कि कोई सुख नहीं सुहाते हैं जब शूल हृदय में चुभते हैं पीड़ा में खुद को पाते हैं जब अपने और पराए सब उपहास ही करने आते हैं तब घोर अंधेरी राहों में वो सूर्य की भांति चमकता है फिर थाम के उंगली मेरी वो निज पथ पर लेकर बढ़ता है करुणा से भरे हृदय से जब आलिंगन मेरा करता है सब दर्द व्यथा खो जाती है व्यक्तित्व निखरने लगता है © दीपक शर्मा ’सार्थक’