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व्यथित मन

जब बोल नहीं निकले मुंह से जब शब्द खतम हो जाते हैं जब छिन्न–भिन्न होकर सपने आंखों में ही खो जाते हैं जब चित्त अस्थिर होने से एकाकी हम हो जाते हैं जब मन इतना व्याकुल हो कि कोई सुख नहीं सुहाते हैं जब शूल हृदय में चुभते हैं पीड़ा में खुद को पाते हैं जब अपने और पराए सब उपहास ही करने आते हैं तब घोर अंधेरी राहों में वो सूर्य की भांति चमकता है फिर थाम के उंगली मेरी वो निज पथ पर लेकर बढ़ता है करुणा से भरे हृदय से जब आलिंगन मेरा करता है सब दर्द व्यथा खो जाती है व्यक्तित्व निखरने लगता है               © दीपक शर्मा ’सार्थक’

राम हैं त्याग..त्याग हैं राम

राम बसे हैं त्याग में,जग  ढूंढे उनको अधिकारों में जिसने त्याग दिया सिंहासन तत क्षण जैसे तिनका सा  राष्ट्रधर्म पालन में जिसने त्याग किया निज वनिता का त्याग किया सर्वस्व सुखों का चले सदा अंगारों में राम बसे हैं त्याग में, जग ढूंढे उनको अधिकारों में  कर्तव्यों की राह पे चलकर राम ने यश को पाया था अधिकारों की जगह राम ने त्याग का पथ अपनाया था मरा–मरा जप रहे भूलवश लोग घने अंधियारों में राम बसे हैं त्याग में, जग ढूंढे उनको अधिकारों में  राम के नाम पे अधिकारों का जो षड्यंत्र चलाते हैं भूमि के टुकड़े की खातिर आपस में सबको लड़वाते हैं राम हैं तीनों लोक के स्वामी नेति–नेति संसारो में राम बसे हैं त्याग में, जग ढूंढे उनको अधिकारों में            © दीपक शर्मा ’सार्थक’

भूख और रोटी

रूप रोटी का बदल के जबसे पिज्जा हो गया है भूख भी तब्दील होकर के हवस सी बन गई है ! अब गुजारे में नहीं दो जून की रोटी है काफी नित्य बाजारीकरण से लालसाएं बढ़ गई हैं ! नोच करके कफ़न भी ये खा रहे हैं पशु के जैसे गिद्ध इंसानों में शायद होड़ जैसी लग गई है ! निज धरा को चीर करके कर रहे दोहन अनर्गल रक्त पीने की पिपासा कम न लेकिन पड़ रही है ! मर रहे थे भूख से वो आज खाकर मर रहे हैं खा के मैदा, नमक, चीनी  शुगर प्रतिपल बढ़ रही है ! भिज्ञ होकर भी बना अनभिज्ञ बैठा है ज़माना पर कभी नज़रें चुराने से मुसीबत कम हुई है ?           ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’             मो. नं. – 6394521525

रमेश वाजपेई विरल

रच रहे इतिहास हैं जो नित्य शिक्षा के जगत में आदि शंकर की तरह निःस्वार्थ सेवा में लगे हैं ज्योति शिक्षा की जलाकर हर लिया तम, हर हृदय से राष्ट्र सेवा में सकल सर्वस्व अर्पित कर रहे हैं बिन किसी अवलंब के ही छू लिया है गगन को भी खुद के ही पुरुषार्थ से वट वृक्ष के जैसे खड़े हैं जटिलता की भीड़ में जो हैं ’विरल’, पर उर सरल प्रतिपल प्रबल आवेग से निर्भीक होकर के बढ़े हैं हो परिस्थिति कोई भी पर नित हंसी अधरों पे जिनके दृष्टि सम्यक, सौम्यता की मूर्ति वो सबको लगे हैं  राम जिनके ईश हैं, वो ’रमेश’ होकर राममय हर ऋतु में वो ऋतुराज बनकर राष्ट रौशन कर रहे हैं                               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’                        
बदल रही है सोच सभी की युग विज्ञान का आया है महिलाओं ने अपने दम पर सब करके दिखलाया है घर की चार दिवारी से  अब हिम्मत करके निकली है सभी विधाओं में अब स्त्री का परचम लहराया है बाल विवाह, अशिक्षा जैसी जटिल परिस्थिति से लड़कर अपने हक और मर्यादा की फिर आवाज उठाया है निज श्रम के बलबूते पर वो आसमान को छू लेगी महिलाओं का ही ये युग है आज समझ में आया है              ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

अरविंद सिंह

सेतु हैं स्कूल के  हर हेतु वो उपलब्ध होकर प्राण वायु की तरह  नि:स्वार्थ सेवा में लगे हैं ! कष्ट कितने भी हो लेकिन नित हँसी अधरों पे लेकर ग़म खुशी जो भी मिले वो साथ में लेकर चले हैं ! कार्य कोई भी करें ये किंतु नैसर्गिक हैं शिक्षक शैक्षणिक तकनीक में सब वो भली भाँति ढले हैं ! प्रेम के पोखर के ऊपर हैं खिले ’अरविंद’ जैसे वैसी ही अनुभूति से ’अरविंद जी’ हमको मिले हैं !               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

लखन सिंह

नित समर्पित भाव से शिक्षा की ज्योति को जलाया शिष्य का तम हर रहे कर्तव्य सब अपने निभाकर ! भागीरथी जैसे प्रयासों  से सकल स्कूल सुधरा फल की चिंता भूलकर निष्काम भावो में समाकर ! लक्ष्य जो दुश्वार लगते थे  सभी को अब तलक सब निज परिश्रम से किया पूरा सभी उनको दिखाकर ! रामपुर की भूमि पर वो छा गए लक्ष्मण के जैसे धन्य अभनापुर हुआ ये ’लखन जी’ का साथ पाकर !                ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’