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ई पी एल

एक नहीं दो चार नहीं ये सबके सब हैं निठल्ले खेलते हैं बस पैसों पर  ये आईपीएल के दल्ले  न कोई फिटनेस न फुर्ती हैं ऐसे ये नल्ले खेल रहे ज्यों गुल्ली डंडा गेंद न आए पल्ले देशी पिच पर हीरो बनते बाहर चले न बल्ले न कोई ओपनर ढंग का लगते सभी पुछल्ले  बने ब्रांड एंबेसडर फिरते फैन मचाए हल्ले  हारे सभी सीरीज जरूरी ये उड़ान के छल्ले      दीपक शर्मा ’सार्थक’

ऐसा देश है मेरा भाग 7

और शुक्र डूब गए। इसी के साथ सारे शुभ कार्यों पर बड़ा वाला फुल स्टॉप लग गया। आखिर शुक्र का ऐसा क्या प्रभाव है कि उसके डूब जाने भर से सारे शुभ कार्यों को उसके उगने तक के लिए टाल दिया जाता है। इसका जलवा ये है की अति आतुर लोगों के शुभकार्यों को पंडित लोग अपनी पंडाताई झाड़ के किसी और समय का तो उनके मुहूर्त निकाल देते हैं लेकिन शुक्र डूबने के बाद वो भी मजबूर हो जाते हैं।और उसके उदय होने तक का इंतजार करने की सलाह देते हैं। इसका उत्तर तो खैर भारतीय पौराणिक ग्रंथों में मिल ही जाता है। जिन्होंने पढ़ रखा है उनको मालूम भी होगा। लेकिन मुझे इसकी एक बात जरूर अचरज में डालती है की इन कथाओं में कुछ तो विशेष प्रकार का आकर्षण जरूर है। जिसका प्रभाव आजतक भारतीय जनमानस की परंपराओं में देखने को मिलता है। खासकर इन पौराणिक कथाओं से जुड़े तर्को को जब तार्किक दृष्टि से पढ़ो तो और मजा आता है। शुक्र से जुड़ी इस मान्यता को वामन अवतार के समय से जोड़ कर देखा जाता है। उस दृश्य की कल्पना करिए! राजा बलि गुरु शुक्राचार्य के सहयोग से शत यज्ञ करके इंद्र का पद प्राप्त कर चुके थे। लेकिन अचानक एक बौना बच्चा तीन पग भूमि दान स्व...

अब कहती हो प्यार नहीं है

हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है ! जिन नयनों से निस-दिन प्रतिपल प्रेम की वर्षा होती थी  जिन अधरों से निश्छल कोमल बस मुस्कान बिखरती थी  आज मुझे चिंतित कुम्हलाई  छवि तेरी स्वीकार नहीं है हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है  ! कभी क्षणिक आलिंगन से तुम हिम की भांति पिघल जाती थी और सजल शीतल सरिता सी  जलनिधि से तुम मिल जाती थी किंतु स्रोत सूखे संवेगो में पहले सा सार नहीं है हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है ! क्यों प्रतक्ष से आंख मूंद कर प्रेम को तुम झुठलाती हो निज कुंठा का उत्तरदाई गैर को क्यों ठहराती हो इस गमगीन निराशा का अब क्या कोई उपचार नहीं है  हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है !            ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

भाषाएं भी मर जाया करती हैं

भाषाएं भी मर जाया करती हैं कभी अपना अर्थ खोकर या अर्थ का अनर्थ होकर अपनो की खाकर ठोकर जब उपेक्षित होती रहती हैं भाषाएं भी मर जाया करती हैं ! अंग्रजी के महा आवरण से बचती शहरों में अकेलेपन से सहमी दिन पर दिन अपने ही दायरे में सिकुड़ती  अपने आस्तित्व के लिए लड़ती रहती हैं भाषाएं भी मर जाया करती हैं ! अब वो न हिंदी हैं न हमवतन हैं  अब न वो हिंदी ही हैं न इंग्लिश हैं बलात्कारी अंग्रेजी की अवैध संतान हैं  अब वो अधकचरे हिजड़े ’हिंग्लिश’ हैं ऐसे ही पतन के गर्त में गिरती रहती हैं अच्छा ही है जो अपना हश्र देखने से पहले  भाषाएं  मर जाया करती हैं !                   ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

गुरु वंदना

दिखाए हमको रास्ता बनी है इसपे आस्था अंधेरे से निकालता है नव प्रकाश गीत है ! ये ब्रह्म के समान है धरा पे चारों ओर बस इसी के यश का गान है संवारे है, निखारे है यही तो इसकी रीत है ! कभी है मेरु सा अचल  कभी समुद्र सा सजल विराट अपनी सोच में स्वभाव से विनीत है ! प्रेम से भरा हृदय  समस्त स्वार्थ से परे ज्ञान की किरण है और बोध का प्रतीक है ! निकाला हमको कूप से बचाया हमको धूप से गुरु तेरे चरण में ही तो 'सार्थक' की प्रीत है !           ©️ दीपक शर्मा ' सार्थक'

सब निपुण हो रहे हैं

जंगल का राजा निपुण हो रहा है रोज बे सिर–पैर के आदेश देने में, मनमानी करने में ! जंगल निपुण हो रहा है खानापूर्ति करने में, नतमस्तक होकर हर आदेश मानने में ! जंगली निपुण हो रहे है शिकर करने में, शिकर को निकलते हैं कभी अकेले तो कभी झुंड में ! जानवर निपुण हो रहे हैं अपनी जान बचाने में, बेतहाशा भाग रहे हैं सड़क पर डाल कर जान जोखिम में ! जी हां, सब निपुण हो रहे हैं अपने अपने हुनर में, अपने अपने काम में !            ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

परिचय का परिचय

एक छोटी घटना जिसका ज़िक्र हमारे परिवार में हो ही जाता है। पड़ोस में रामायण का पाठ हो रहा था।परिवार के पढ़े लिखे लोग रामायण पढ़ रहे थे। गांवों में एक चलन है जो लोग रामायण पढ़ने आते हैं, उनकी विशेष खातिरदारी होती है, कभी चाय बनकर आती है कभी नाश्ता बनकर आता है। इस पूरे घटनाक्रम को एक सात–आठ साल का बच्चा ध्यान से देख रहा था। उस बच्चे ने जिसने अभी तक स्कूल का मुंह नहीं देखा था, अचानक हाथ जोड़ कर मन ही मन भगवान से विनती की, " हे भगवान, हमको भी पढ़ना लिखना आ जाए ताकि हमको भी ऐसे ही चाय नाश्ता मिलने लगे।" उस अबोध बच्चे ने हृदय से भगवान से केवल पढ़ना लिखना इस लिए मांगा था क्योंकि उसके मन में पढ़ने लिखने वालो को मिलने वाले खाने पीने की वस्तुएं देख कर लालच आ गया था। लेकिन शायद ईश्वर ने उसकी पुकार सुन ली। किसे पता था यही बच्चा आगे चलकर डॉक्टर गंगा प्रसाद शर्मा ’गुणशेखर’ के नाम से विख्यात होगा, शिक्षित होकर पी.एच.डी करेगा, लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी में आईएएस को पढ़ाएगा, विदेश में जाकर हिंदी का नाम रौशन करेगा। जब आज के समय मैं ये लिख रहा हूं तो कुछ लोगों को लग रहा होगा कि विदेश जाना...