ऐसा देश है मेरा भाग 7
इसका उत्तर तो खैर भारतीय पौराणिक ग्रंथों में मिल ही जाता है। जिन्होंने पढ़ रखा है उनको मालूम भी होगा। लेकिन मुझे इसकी एक बात जरूर अचरज में डालती है की इन कथाओं में कुछ तो विशेष प्रकार का आकर्षण जरूर है। जिसका प्रभाव आजतक भारतीय जनमानस की परंपराओं में देखने को मिलता है। खासकर इन पौराणिक कथाओं से जुड़े तर्को को जब तार्किक दृष्टि से पढ़ो तो और मजा आता है।
शुक्र से जुड़ी इस मान्यता को वामन अवतार के समय से जोड़ कर देखा जाता है। उस दृश्य की कल्पना करिए! राजा बलि गुरु शुक्राचार्य के सहयोग से शत यज्ञ करके इंद्र का पद प्राप्त कर चुके थे। लेकिन अचानक एक बौना बच्चा तीन पग भूमि दान स्वरूप लेने के लिए उनके दरवाज़े खड़ा हो जाता है।
मेरी एक बात समझ में नहीं आती, आखिर वामन अवतार की अवश्यकता क्यूं पड़ी। बलि कोई चोरी तो कर नहीं रहे थे। शास्त्रों में इसका वर्णन है की तप और यज्ञ से अर्जित बल दोष रहित होता है। बलि तो तप और यज्ञ करके ही इंद्रत्व को प्राप्त करने जा रहे थे। फिर उनके इस प्रयास को खंडित करने की क्या आवश्यकता थी ? और फिर बलि तो प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र थे। जो की विष्णु भक्त थे। फिर भी उनके प्रयास में उनको सफल होने नहीं दिया गया।
हो सकता है इंद्र का पद पाकर बलि उसका दुरूपयोग करेंगे, इसी डर से उनको ऐसा करने से रोका गया। जो भी हो वामन रूपी बालक, बलि के पास दान लेने पहुंच गए। तीन पग जमीन की मांग पर पहले तो बलि को बहुत हंसी आती है। लेकिन जब शुक्राचार्य उसे दान देने के संकल्प से रोककर बताते हैं की , “ये दान नहीं छल है। सामने जो वामन बालक दिख रहा है वो साक्षात विष्णु है, जो तुम्हारा हक तुमसे छीनने आए हैं।"
यही वो क्षण है जो बलि को बलि बनाता है। वो मुस्कुरा कर बोलता है, " ठीक है! ये कोई भी हों, मेरे दरवाज़े से बिना दान प्राप्त किए कोई नहीं जाता। मैं दान का संकल्प करूंगा।"
आगे की कहानी बहुत प्रचिलित है। जब वो अंजुली में जल लेने के लिए पात्र में से जल लेना चाहता है तभी शुक्राचार्य छोटा रूप बनाकर टोटी के अंदर बैठ जाते हैं।जब जल नहीं निकलता तो वामन भगवान उसके अंदर तिनका डाल कर उसे साफ करते हैं और ऐसा होते ही शुक्राचार्य की एक आंख फूट जाती है। इस तरह वो बाहर निकल आते हैं।
आगे भी सबको पता है कैसे वामन भगवान अपना रूप बढ़ाकर एक पैर से पृथ्वी और दूसरे से आकाश नाप लेते हैं। फिर तीसरे पग की बारी आती है। यहां से दो तरह की कथाओं का जिक्र मिलता है।एक कथा कहती है की वामन भगवान बलि से बोलते हैं की मैंने तो दो पग में ही तुम्हारा सब कुछ नाप लिया अब तुम्हारे पास देने को कुछ नहीं है। अतः तुम्हारा दिया दान निष्फल हो जाता है। तब बलि उनसे तीसरा पग अपने सिर पर रखने को बोलते हैं। इस तरह वो अपना दिया दान पूरा करते हैं।
जबकि दूसरी कथा के अनुसार जब तीसरे पग का दान पूरा न कर पाने से बलि का दान निष्फल हो जाने की बात वामन भगवान बोलते हैं, तब वहां प्रहलाद आ जाते हैं और वामन के इस कृत्य की आलोचना करते हैं।
प्रहलाद वहां जो बोलते हैं वो बात मुझे बहुत पसंद है।वो बोलते हैं, "दान जैसे सात्विक कर्म के साथ आपने छल किया है। सत्य ये है की बलि ने एक वामन बच्चे को दान स्वरूप तीन पग भूमि दी थी न की इस विराट रूप वाले वामन को ! नियम तो ये है की जिस स्वरूप में आपने बलि से दान मांगा था उसी स्वरूप में आप दान के पात्र थे। और इसलिए आपके द्वारा नापे गए पहले के दो पग भी गलत हो जाते हैं। बलि चाहे तो आप को उसी वामन स्वरूप में दान देने के लिए बाध्य कर सकता है। लेकिन जो हो गया सो हो गया। बुरा ये है की अब आप तीसरे पग के नाम पर उसकी कीर्ति भी नष्ट कर देना चाहते हैं की वो अपना दान पूरा नहीं कर पाया। इसलिए आप पुनः वामन रूप में आइए और बलि की पीठ को अपने छोटे पग से नाप लीजिए, उसके शरीर पर अभी भी उसका अधिकार है।"
जो भी हो इस लेख का मुख्य विषय ये नहीं था की बलि के साथ क्या हुआ था। यहां तो शुक्र की बात चल रही है। पुनः कथा के इस हिस्से पर चलते हैं जहां शुक्राचार्य अपनी आंख फोड़वाकर टोटी से बाहर आते हैं। बलि का दान हो गया। वामन फिर से सामान्य हो गए। उदास शुक्राचार्य भगवान के पास आते हैं और करुणा भरे स्वर में बोलते हैं ,“ आपने मेरे साथ ऐसा क्यूं किया ? मैं तो बस अपने गुरु धर्म का पालन कर रहा था। शिष्य को ऐसे सरेआम लुटता देख कर मैं क्या करता। अतः जो बन पड़ा वो किया। लेकिन आपने मुझे एक आंख का काना बना दिया। अब लोग मुझ पर हंसेंगे। एक तो मैं दैत्यों का गुरु ऊपर से काना, लोग मेरा उपहास करेंगे।
भगवान को उनपर दया आ गई वो बोले,"ठीक है मैं आपको वरदान देता हूं की आपकी ही उपस्थिति में ही सारे शुभ कार्य होंगे। जहां आप नहीं होंगे वो शुभ कार्य भी अशुभ हो जाएगा।"
तो कहने का मतलब ये है एक काना ग्रह जब तक उदित रहता है तब तक ही सारे शुभ कार्य कराए जाते हैं। और जैसे ही ये डूब जाता है, सारे शुभ कार्य रुक जाते हैं।
सोचने वाली बात ये है की एक तरफ तो सारे शुभकार्य एक ऐसे ग्रह की उपस्थिति में संपन्न कराए जाते हैं जो एक आंख का अंधा है। वही दूसरी तरफ आज भी ग्रामीण भारत में अगर कोई एक आंख का व्यक्ति किसी को दिख जाता है तो वो रास्ता बदल देता है। ग्रामीण भारत में अधिकतर लोग इसे अशुभ मानते हैं। ये ऐसे लोगों का दोगलापन ही तो हुआ। और अगर ऐसे लोग दोगले नहीं तो कम से कम मूर्ख तो जरूर हैं। जिन्हे अपनी मान्यताओं का भी ज्ञान नहीं है।
©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
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