भाषाएं भी मर जाया करती हैं
कभी अपना अर्थ खोकर
या अर्थ का अनर्थ होकर
अपनो की खाकर ठोकर
जब उपेक्षित होती रहती हैं
भाषाएं भी मर जाया करती हैं !
अंग्रजी के महा आवरण से बचती
शहरों में अकेलेपन से सहमी
दिन पर दिन अपने ही दायरे में सिकुड़ती
अपने आस्तित्व के लिए लड़ती रहती हैं
भाषाएं भी मर जाया करती हैं !
अब वो न हिंदी हैं न हमवतन हैं
अब न वो हिंदी ही हैं न इंग्लिश हैं
बलात्कारी अंग्रेजी की अवैध संतान हैं
अब वो अधकचरे हिजड़े ’हिंग्लिश’ हैं
ऐसे ही पतन के गर्त में गिरती रहती हैं
अच्छा ही है जो अपना हश्र देखने से पहले
भाषाएं मर जाया करती हैं !
©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
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