अब कहती हो प्यार नहीं है
हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है ! जिन नयनों से निस-दिन प्रतिपल प्रेम की वर्षा होती थी जिन अधरों से निश्छल कोमल बस मुस्कान बिखरती थी आज मुझे चिंतित कुम्हलाई छवि तेरी स्वीकार नहीं है हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है ! कभी क्षणिक आलिंगन से तुम हिम की भांति पिघल जाती थी और सजल शीतल सरिता सी जलनिधि से तुम मिल जाती थी किंतु स्रोत सूखे संवेगो में पहले सा सार नहीं है हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है ! क्यों प्रतक्ष से आंख मूंद कर प्रेम को तुम झुठलाती हो निज कुंठा का उत्तरदाई गैर को क्यों ठहराती हो इस गमगीन निराशा का अब क्या कोई उपचार नहीं है हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है ! ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’