सजी हैं दावतों से महफिले उनके शहर की
कोई भूखा पकड़ के पेट अपना सो रहा है !
ये दीनी मज़हबी मतलब के सजदे कर रहे हैं
दुआओ का असर बस इसलिए कम हो रहा है !
मचा के खलबली पूरे शहर में चेतना की
वो घोड़े बेच करके मस्त होकर सो रहा है !
कभी जो प्यार में खाता था कसमें जीने मरने की
सुना है आजकल बेमन से रिश्ता ढो रहा है !
सुकू से मुस्कुराना भूल बैठा है जमाना
जिसे भी देखिए दामन भिगोकर रो रहा है !
लगा है खोजने में बाहरी दुनिया को इंसा
कहीं अंदर ही अंदर खुद ही खुद को खो रहा है !
बता कर वो गया था अब कभी वापस न आयेंगे
मगर ये दिल है अबतक बाट उसकी जोह रहा है !
पड़ा अकाल है जज़्बा किसानों का मगर देखो
जमीं बंजर है लेकिन बीज अपने बो रहा है !
©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’
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