नेता और किसान
वो सियासत के सीवर में बह रहे कीचड़ के जैसा लाश के ऊपर कफन को बेच दे, लीचड़ है ऐसा और तुम हाथों में 'हल' लेकर के लड़ने आ गए ! वो सियासी दांव पेचों में सधे 'शकुनी' के जैसा एकता को तोड़ने में है कुशल छेनी के जैसा और तुम संयुक्त होकर भिड़ने उससे आ गए ! भेष साधू का धरे वो छद्म विद्या में है माहिर स्वांग आडम्बर कुटिल चालों से छलने में है माहिर और तुम उसके शहर में धरना देने आ गए ! किंतु अब जब आ गए तो दंभ उसका तोड़ना झुक न जाये जब तलक पीछा न उसका छोड़ना अब न हिम्मत हारना अब आ गए तो आ गए ! ● दीपक शर्मा 'सार्थक'