नैतिकता की नेक्कर
बात की साहित्यीकरण करके उसको रबड़ की तरह नही खीचुँगा, सीधे मद्दे पे आता हूँ। जब भी साहित्य की बात होती है। तो हर कोई तपाक से बोलता है कि "साहित्य समाज का आईना होता है।" यानी समाज में जो भी कुछ घट रहा है,साहित्य उसका अक्षरशः वर्णन करता है।पर आजकल परिस्थिति कुछ ऐसी हैं कि कोई साहित्यकार,जैसा समाज है अगर उसका दस प्रतिशत भी वर्णन कर दे तो लोगों को मिर्ची लग जाती है। मेरा सहित्य कैसा है ये मुझे नहीं पता,लेकिन मै खुद को एक 'दर्शक' की तरह पाता हूँ, जो समाज को बस देख रहा है। और जो भी कुछ इस समाज मे घट रहा है।उसे अपने शब्दों में लिख देता है। वैसे भी जो साहित्यकार, समाज को कैसा होना चाहिये..किस दिशा में समाज को बढ़ना चाहिये..समाज में कौन-कौन से बदलाव होने चाहिये, इस तरह के विषय पे लिखते हैं। उनको मै साहित्यकार कम दार्शनिक ज़्यादा मानता हूँ। हो भी क्यूँ न वो समाज के दर्शक भर नहीं हैं।वो तो समाज को दिशा देने में लगे हैं।यानी ऐसे लोग पथ प्रदर्शक हैं। इस लिए इनको दार्शनिक कहना चाहिए। इस समय ऐसे साहित्यकारों के आगे एक समस्या पैदा हो गई है। चूँकि साहित्य समाज का आईना है और ऐसे दार्शनिक ...