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नैतिकता की नेक्कर

बात की साहित्यीकरण करके उसको रबड़ की तरह नही खीचुँगा, सीधे मद्दे पे आता हूँ। जब भी साहित्य की बात होती है। तो हर कोई तपाक से बोलता है कि "साहित्य समाज का आईना होता है।" यानी समाज में जो भी कुछ घट रहा है,साहित्य उसका अक्षरशः वर्णन करता है।पर आजकल परिस्थिति कुछ ऐसी हैं कि कोई साहित्यकार,जैसा समाज है अगर उसका दस प्रतिशत भी वर्णन कर दे तो लोगों को मिर्ची लग जाती है। मेरा सहित्य कैसा है ये मुझे नहीं पता,लेकिन मै खुद को एक 'दर्शक' की तरह पाता हूँ, जो समाज को बस देख रहा है। और जो भी कुछ इस समाज मे घट रहा है।उसे अपने शब्दों में लिख देता है। वैसे भी जो साहित्यकार, समाज को कैसा होना चाहिये..किस दिशा में समाज को बढ़ना चाहिये..समाज में कौन-कौन से बदलाव होने चाहिये, इस तरह के विषय पे लिखते हैं। उनको मै साहित्यकार कम दार्शनिक ज़्यादा मानता हूँ। हो भी क्यूँ न वो समाज के दर्शक भर नहीं हैं।वो तो समाज को दिशा देने में लगे हैं।यानी ऐसे लोग पथ प्रदर्शक हैं। इस लिए इनको दार्शनिक कहना चाहिए। इस समय ऐसे साहित्यकारों के आगे एक समस्या पैदा हो गई है। चूँकि साहित्य समाज का आईना है और ऐसे दार्शनिक ...

जय किसान

अंबानी - किसान भाईयों ! हमारा नाम अंबानी है और हमने आप लोगों की ज़मीन लीज़ पे ली है। अब आप लोगों के अच्छे दिन आने ही वाले हैं। बस आप लोगों को मेरे कहने पर पुदीने की खेती शुरु करनी होगी। किसान - आयं! यू का बता रहे हो भईया! अब हमका आप के लिए खेती करनी पड़ेगी। मतलब हम किसान अपनी मर्ज़ी से खेती भी नहीं कर पाएंगे! अंबानी- मूर्खता वाली बातें मत करो आपलोग। जब जमीन मैने लीज़ पे ली है तो आप को मेरे अनुसार ही खेती करनी पड़ेगी।  किसान- ये कैसे हो गया भईया। हम लोग तो कुछ जान ही नहीं पाए! अंबानी- अर्रे मूर्खदास तुम लोग तो कुछ नहीं जानते। ये वैसे ही हुआ जैसे किसी जमाने में ईस्ट इंडिया कंपनी ने किसानो से 'नील की खेती' कराने के लिए उनकी जमीन लीज़ पर ली थी। जिस तरह उस टाईम किसान नील की खेती कर रहे थे,वैसे ही अब आप लोग मेरे लिए पुदीने की खेती करेंगे। किसान - पुदीना ..पुदीना ! काहे चिल्ला रहें हैं साहब ! का बहुत पसंद है आप को पुदीना ! अंबानी- हमको पुदीना नहीं बल्कि उसके तेल से मतलब है। हम पुदीने से तेल बनायेंगे, और फिर उसे हर भारतीय को बेचेंगे। ये तेल लगाके हर भारतीय का तनाव कम होगा।और वो चैन की नींद सो...

शब्दव्यूह

मेरा शब्दव्यूह का रचना और तुम्हारा कुछ न कहना ! रति विरक्त मैं व्योम व्यंग्य का कटु वीभत्स लिखने का आदी तटविहीन उद्विग्न हृदय में  निज प्रश्नो की लिए समाधी  किन्तु सकल अनुभव शब्दों में  व्यक्त तुम्हें अक्षरशः करना ! मेरा शब्द व्यूह का रचना  और तुम्हारा कुछ न कहना ! है श्र्ंगार का सार अपरिचित मैं संयोग-वियोग न मानू पुलकित प्रेम प्रकट हो कैसे हूँ अनभिग्य न कुछ मै जानू मद अज्ञान के हठ में डूबा सदा तम्हें शब्दों से छलना ! मेरा शब्द व्यूह का रचना और तुम्हारा कुछ न कहना ! मैं गणितीय सूत्र से प्रतिपल प्रेम समझना चाह रहा था तर्क-वितर्क के मापदंड से करुणित प्रेम को आंक रहा था तू अबोध निश्छल अरुणोदय  निर्विकार नि:स्वार्थ निकलना ! मेरा शब्दव्यूह का रचना और तेरा कुछ भी न कहना ! मेरे शब्दकोश के जितने शब्द तुम्हारे पास नहीं हैं मेरे इस निष्ठुर स्वभाव से भले तुम्हें अब आस नहीं है पर मेरे अपराध भुलाकर पुन: मुझे आलिंगन करना ! मेरा शब्दव्यूह का रचना और तुम्हारा कुछ न कहना !        ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

प्रेम का फिजिकल डेफिसिट

जबसे सम्बंधों के शेयर गिरने लगे हैं सपनों के स्टॉक एक्सचेंज रुकने लगे हैं ! हम कमोडिटी बाज़ार जैसे मटेरिलिस्टिक तुम 'इक्विटी' बाज़ार जैसे मायावी ! हम 'निफ्टी' जैसे सिकुड़े  तुम 'बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज' जैसे हावी ! हमारा प्यार, 'एफ.डी.आई' की तरह स्थिर ! तुम्हारा व्यवहार  'पोर्टफोलियो' जैसे अस्थिर ! उसपर भी तुम्हारी उम्मीदों का इन्फ्लेशन चढ़ रहा है ! और मुझ गरीब का 'फिज़िकल डेफिसिट' बढ़ रहा है ! अब जब भावनाओं का  'आयात-निर्यात' रुक गया है ! 'ग्लोबलाईजेशन' की चमक में  गैरों के फंड पे, दिल तुम्हारा झुक गया है ! तो क्यों न प्यार के 'बाज़ार' में  हम दोनो ढल जाएं नये 'कार्पोरेट कैपिटल' की तलाश में  अपने-अपने रास्ते निकल जाएं !              ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

घमंड के बुर्ज़ खलीफ़ा

समय से पहले बड़े हो गए  अब अबोध रहता है कौन ! एक प्रश्न के सौ उत्तर दें  बड़ो की अब सहता है कौन ! बस लीपा-पोती में लगे हैं अब दिल की कहता है कौन ! मछली से फँस गए जाल में  अब विमुक्त बहता है कौन ! हर संबंध की माला तोड़ें मोती ले गहता है कौन ! हैं घमंड के बुर्ज़ खलीफ़ा  त्याग में अब ढहता है कौन !         ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

हिंदी हैं हम

अगर आप सोचते हिंदी में हैं और बोलते अंग्रेजी में हैं तो आप एक नंबर के धोखेबाज हैं विदूषक हैं भांड हैं जाहिल हैं बनावटी हैं  दूसरों पे सेखी झाड़ने वाले, अपनी जड़ों से कटे, दिखावटी हैं ! अगर आप सोचते भी अंग्रेजी में हैं और बोलते भी अंग्रेजी में हैं  तो फिर आप पैदाइशी अंग्रेज हैं अपने रंग पे दूसरे का रंग  चढ़वा लेने वाले रंगरेज़ हैं आपके शरीर में  दूसरे की आत्मा का साया है आप बीमार हैं, दलिद्र हैं आप का सब कुछ पराया है ! अगर आप सोचते हिंदी में हैं और बोलते भी हिंदी में हैं तो आप में सांस्कृतिक चेतना है आप भाषिक समृद्ध हैं, स्वतंत्र हैं मातृभूमि के प्रति संवेदना है क्योंकि आपको मातृभाषा का मान है इसीलिए आपके हृदय में  अन्य भाषा का भी सम्मान है !               ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

सर्व धर्मान परित्यज्य

हाँ मुझमे विकार है वो जो सदियों से रुढ़िवाद का स्थापित आकार है उसमें बदलाव ही तो विकार है ! हाँ मेरे अंदर विरोध है वो जो परिवर्तन का अवरोध है बस उसी का तो विरोध है ! हाँ मुझमें द्वंद्व है नव चेतना जो  परम्पराओ के बोझ से, मस्तिष्क में बन्द है इसिलए तो द्वंद्व है ! हाँ मुझमें आक्रोश है वो जो धर्म की अफीम चाट के दुनियां बेहोश है बस उसी का आक्रोश है !         ● दीपक शर्मा 'सार्थक'