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शिक्षा के निरुद्देश्य

जैसे ही नई शिक्षा नीति चर्चा में आई वैसे ही तमाम शिक्षाविदों को अपनी बिलों से बाहर आने का मौका मिल गया है। अब ये शिक्षाविद् रात में जैसे सियार चिल्लाते हैं वैसे ही सौ साल पुराने राग यानी 'शिक्षा का क्या उद्देश्य है', इसको लेकर शोर मचाने लगे हैं।हालत ये है की इन सौ सालो में शिक्षा के उद्देश्य को लेकर जितनी बहस हुई है वो अगर स्वयं माँ सरस्वती को पता चल जाए तो वो भी शिक्षा के उद्देश्य को लेकर भ्रम में पड़ जाएंगी। शिक्षा के उद्देश्य वाले इस महाकाव्य से मेरा पाला बी.एड. करने के दौरान पड़ा।तबसे लेकर अब तक न जाने ऐसे कितने ही खोखले उद्देश्य को पढता आया हूँ।पर हकीक़त में  शिक्षा के उद्देश्य की आड़ में शुरु से ही घिनौने लोग अपने स्वार्थ को पूरा करने में लगे हैं। सबसे पहले मैकाले भाईसाहब के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य भारत में ऐसा वर्ग तैयार करना था, जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हों लेकिन वह अपनी अभिरूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों। और आज के भारत को देख के साफ पता चलता है की धूर्त मैकाले अपने उद्देश्य में सफल हो गया है। भारत के नेताओं के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य अपने काले ...

मौलिकता का अंकुरण

उनका मानना है कि  जो वो मनाते हैं वो सब माने! वो चाहते हैं की जो वो चाहते हैं वो सब चाहें! उनका सोचना है कि  जैसा वो सोचते हैं वही सब सोचें! और इस तरह वो जो भी मानते चाहते या सोचते हैं  वही औरो पे थोपते हैं! इसी तरह दुनियां में कुछ भी मौलिक और नया होने से रोकते हैं! और इसी प्रयास में  दिन रात कुत्ते के जैसे भौंकते हैं! लेकिन बदलाव की आंधी में  अवरोध सारे उड़ जाते हैं  परिवर्तन की भट्ठी में  जड़ विचार जल जाते हैं  फिर नया दर्शन नई सोच निर्वात में स्फुटित होती है! जड़ता का सीना चीर के मौलिकता अंकुरित होती है!           ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

बेबस मध्यवर्ग

 बेबस मध्यवर्ग ! सामाजिक बंधन से बंधा  कायदे कानून से लदा न उच्चवर्ग जैसी मुक्ती न निम्नवर्ग जैसी चुस्ती जीवन एकदम नर्क बेबस मध्यवर्ग ! मध्यक्रम बल्लेबाज सा दायित्वों के निर्वाह सा न ओपनर सी आज़ादी न निचले क्रम से आत्मघाती  हर चीज़ में बेड़ागर्क बेबस मध्यवर्ग ! कस्बे जैसी जिन्दगी हर जगह फैली गंदगी  न शहर जैसी स्वतंत्रता  न गांव जैसी उदंडता हर घटना से पड़ता फर्क बेबस मध्यवर्ग !        ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

हिजड़े गांव

अबे बेहूदे गांव ! क्यूँ दिन पर दिन बदलते जा रहे हो शहर बनने की हड़बड़ाहट में, अब न गांव ही रह गए हो, न ही पूरी तरह शरह बन पा रहे हो ! तुम्हारे पास न तो शहर वाली सुविधायें हैं  और न ही गांव वाला सुकून और हवाएं हैं  न शहर वाली नाली सड़के सीवर वाला प्लान है न ही गांव वाली हरियाली बाग खलियान है अबे अधकचरे बेहूदे गांव तुम न इधर में रहे न उधर में   सुना साले हिजड़े गांव !                ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

फ़्री और सस्ता

जीन्स को अपने पिछवाड़े की सबसे निचली तलछटी पे बाँध के जॉकी की चड्डी दिखाने वाले, और बात-बात पर एप्पल वाला आईफोन निकाल कर दिखावा करने वाले महमनवों को अगर किनारे कर दिया जाए तो बाकी बचे भारतीयों के लिए, फ़्री और सस्ता सामान सदा से माइने रखता आया है।लेकिन अगर गहराई से सोच कर देखें तो पता चलेगा की इस संसार में प्रेम को छोड़ के कुछ भी फ़्री नहीं मिलता।यहाँ प्रेम से मेरा आशय, "मेला बाबू मेले जन्मदिन पे कौन छा मोबाइल गिफ्ट में देगा!" वाली हरामखोरी से नहीं है। यहाँ प्रेम से मेरा मतलब नि:स्वार्थ एवं नि:छल प्रेम से है।और ऐसे प्रेम को छोड़ कर इन्सान को हर चीज़ की क़ीमत चुकानी पड़ती है। बस केवल समझ का फेर है जो हम इस बात को जान नहीं पाते। बड़ी से बड़ी और टिटपुजिया से टिटपुजिया कंपनी, फलाने के साथ ढिमाका फ़्री, इसके साथ वो फ़्री, वाले लुभावने ऑफर निकालती है और इन ऑफरों को देख के ग्राहकों की लार एकदम उसी तरह से टपकने लगती है जैसे एक विशेष जानवर की लार खाने को देख के टपकने लगती है। लेकिन फ़्री के लालच में लोग ये भूल जाते हैं की ये फ़्री ग्राहको को फंसाने के लिए मात्र एक फसला (मछली को फंसाने वाला जाल ) है...
सच पूछों तो आत्महत्या में हत्या होती है खुद को विशेष समझने के भ्रम की ! खुद से जुड़ी अथाह अपेक्षाओं की ! सारे हालातों को थमाने की ज़िद की ! खयाली मकडजाल को बुनने के लत की ! रही बात आत्महत्या की तो आत्मा की हत्या  कोई कैसे कर सकता है! आत्मा अजर अमर जो ठहरी!             ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

अंध दूरदर्शी

दास राज! मेरे पिता महाराज शान्तनु आप की बेटी देवी सत्यवती से प्रेम करते हैं।फिर आप को उनके विवाह में क्या आपत्ति है? मुझे आपत्ति नहीं है राजकुमार देववृत ! परन्तु इस विवाह से मेरी पुत्री को क्या प्राप्त होगा? अरे दास राज! वो महान कुरु वंश की महारानी बन जाएंगी।और क्या चाहिए ? पर राजकुमार थोडा और आगे की सोचो! मेरी पुत्री सत्यवती का पुत्र कभी राजा नहीं बन पायेगा।क्योंकि महाराज शान्तनु के बाद राजा तो आप बनेंगे। तो ठीक है दास राज ! मैं ये प्रण लेता हूँ कि मै राजा नहीं बनुंगा। देवी सत्यवती से उत्पन्न पुत्र ही राजा बनेगा। वो तो ठीक है राजकुमार लेकिन थोड़ा और आगे की सोचो।आप तो राजा नहीं बनेंगे लेकिन आगे चलके आप के पुत्र राज्य पर अपना दावा ठोक देंगे। फिर मेरी पुत्री के पुत्रों का क्या होगा? अगर ऐसा है तो मैं प्रण करता हूँ की मै आजीवन ब्रम्हचर्य का पालन करूंगा। कभी विवाह नहीं करूंगा।और संतानहीन रहूँगा। उक्त घटनाक्रम महाभारत में भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से प्रचलित है।यहाँ गौर करने वाली बात ये है कि इस घटनाक्रम में भीष्म के महान त्याग और उनकी अखंड प्रतिज्ञा केंद्र में रहती है और सत्यवती के दो कौड़ी के ...