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तथाकथित

जबसे मुझे पता चला है कि 'भारतरत्न' पुरस्कार, मुझे नहीं मिलेगा, मैं तड़प कर रह गया हूँ। 'नाॅवेल प्राइज़' भी मुझे नहीं मिलेगा ऐसे आसार मुझे लग रहे हैं। लेकिन मैं हताश होने वालों में नहीं हूँ। मैने अपना ख़ुद का पुरस्कार बना लिया है। मेरे पुरस्कार का नाम है, "तथाकथित पुरस्कार"। मेरा ये "तथाकथित पुरस्कार" सभी क्षेत्रों में दिया जाएगा। जिसकी आज मैं घोषणा कर रहा हूँ- बेस्ट "तथाकथित प्रधानसेवक" का पुरस्कार 'साहेब' को दिया जाता है। जिन्होंने अपने मालिक (जनता) के प्रयोग में आने वाली करेन्सी(नोट) बंद करके उनका हुक्का पानी ही बंद करा दिया। वो पहले ऐसे सेवक हैं जो अपने मनमाने फैसले अपने मालिक पर थोपते हैं। बेस्ट "तथाकथित गांधी" के पुरस्कार को लेकर माँ-बेटे में कम्पटीशन बहुत था, पर अंत में बेटा...माँ पर भारी पड़ा है, अत: "बेस्ट तथाकथित गांधी" का पुरस्कार राहुल को दिया जाता है। जिनमें एक भी लक्षण गांधी जैसे न होने पर भी बेहयाई के साथ अमने नाम के आगे 'गांधी' लगा रखा हैं। बेस्ट "तथाकथित समाजवादी" का पुरस्कार...
भ्रमित पथिक सा भटक रहे वो लक्ष से जिनको प्यार नहीं है... माना रंगो की बारिश है एक रंग पर चुनना है दसो दिशाएं प्यार भरी पर डगर एक ही चलना है लहर भरोसे नाव चली है हाथ में जो पतवार नहीं है भ्रमित पथिक सा भटक रहे वो लक्ष से जिनको प्यार नहीं है... कर्म भूमि संघर्ष भरी है मोह त्याग कर बढ़ना है लक्ष साध के बाण चलाओ कृष्ण का पार्थ से का कहना है निष्काम कर्म है मार्ग तेरा तो जीत नहीं, कोई हार नहीं है भ्रमित पथिक सा भटक रहे वो लक्ष से जिसको प्यार नहीं है... सरस हृदय सामर्थ भुजाएं सरल भाव में रहना है प्रेम का दिल में वास रहे और नज़र लक्ष पर रखना है मधुर बांसुरी भी है निरर्थक जो चक्र सुदर्शन साथ नहीं है भ्रमित पथिक सा भटक रहे वो लक्ष से जिसको प्यार नहीं है....        -- दीपक शर्मा 'सार्थक'
अंजाम जो बदल दे वो आगाज़ तुम बनो... नफ़रत को जो मिटा दे ऐसी गाज़ तुम बनो.... जो रूह में उतर के अंधेरे को चीर दे बजती है जो ख़शी में ऐसी साज़ तुम बनो... संकीर्णता से मुक्त हो गगन में तुम उड़ो...  प्यार की पुकार पे जतन से तुम जुड़ो... लोगो ने ज़हर बो के है बंजर बना दिया बेजान इस ज़मीन से चमन में तुम मुड़ो...             --दीपक शर्मा 'सार्थक'

कुछ कह लूँ...

इससे पहले की ख़यालात दब जाएं इससे पहले की सवालात दब जाएं उल्टी धारा में बह लूँ कुछ कह लूँ.... इससे पहले की आवाज़ घुट जाए मुह से निकले अल्फाज़ लुट जाए हर इल्जाम सह लूँ कुछ कह लूँ.... इससे पहले की सांस थम जाए नसों में बहता लहू जम जाए टूटे ख्वाब सा ढ़ह लूँ कुछ कह लूँ.... इससे पहले कि लोग पीछे पड़ जाएं पाबंदियां लगाने पर अड़ जाएं अपनी धुन में रह लूँ कुछ कह लूँ....              -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

तो होठों को सीं लेता हूँ... !

जब परेशानी इतनी बढ़ जाए कि फिर वो परेशान न करे जब परख इतनी बढ जाए कि कुछ भी हैरान न करे तो होठों को सीं लेता हूँ.... ! जब दर्द इतना बढ़ जाए कि दवाई भी काम न करे जब मेहनत इतनी पड़ जाए कि कोई आराम न करे तो होठों को सीं लेता हूँ... ! जब दूरी इतनी बढ़ जाए कि कोई इंतज़ार न करे जब नफ़रत इतनी बढ़ जाए कि कोई प्यार न करे तो होठों को सीं लेता हूँ... ! जब ग़ुस्सा इतना बढ़ जाए कि कोई इज़हार न करे उलझन इतनी बढ जाए कि कोई इकरार न करे तो होठों को सीं लेता हूँ... ! जब दहशत इतनी भर जाए कि कोई मज़ाल न करे जब गुलामी इतनी बढ़ जाए कि कोई सवाल न करे तो होठों को सीं लेता हूँ... !       -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

मुझे अच्छा नहीं लगता... !

मुझे अच्छा नहीं लगता ! जब लब पर दिल की बात न हो जब सीने में जज़्बात न हो जब हाथ में तेरा हाथ न हो जब काबू में हालात न हो मुझे अच्छा नहीं लगता.... !  आँखों में फरेब के बादल हो जो सच बोले..वो पागल हो हर कोई झूठ का कायल हो जब प्यार में कोई घायल हो मुझे अच्छा नहीं लगता... ! जहाँ प्यार किसी को रास न हो बिन लालच के कोई पास न हो उम्मीद न हो..कोई आस न हो इक दूजे पर विश्वास न हो मुझे अच्छा नहीं लगता... ! जो न सोचो वो हो जाए जब टूट को ख्वाब बिखर जाए कोई अपना हक़ न पाए जब 'अच्छे दिन' भी न आए मुझे अच्छा नहीं लगता... !         -- दीपक शर्मा 'सार्थक
सितम के आगे तो गर्दन झुकाए रहते हो कमी ये ख़ुद की है ग़ैरों पे थोपते क्यों हो... बहुत लज़ीज़ है रोटी भले हो रूखी ही ज़ुबां पे स्वाद है खाने में ढ़ूढ़ते क्यों हो... ये नासमझ से मशवरे बताते फिरते हो जो बात समझो नहीं उसपे बोलते क्यों हो... ज़ुबानी जंग में घायल किया है कितनो को यूं बेसबब ही हर किसी को कोसते क्यों हो.. दवा के बदले, जख्मों पे नमक छिड़क देंगे यूं हर किसी के आगे दिल को खोलते क्यों हो... मिलेगा प्यार जो दिल में उतर के जाओ तुम ये गहरा दरिया है सतह पे तैरते क्यों हो...       -- दीपक शर्मा 'सार्थक'