Posts

Showing posts from April, 2020

इरफ़ान खान

भारतीय सिनेमा के इस थर्ड क्लास दौर में जिसमे आज भी 95% फ़िल्मों में जब हीरो 20 गुन्डो से घिर जाता है, तो एक विलेन आगे दौड़ के आता है। जिसके बाद हीरो उस विलेन को एक मुक्का मारता है और वो 20 फिट दूर जाके गिरता है। जिसके बाद हीरो बाकी विलेन की भी पिटाई करता है।ऐसी फिल्म देखने के बाद दर्शक भी आस्तीने चढ़ाए हुए और शरीर को अनावश्यक फुलाते पिचकाते हुए और साथ में स्टाइल से सिगरेट पीते हुए सिनेमा हाल के बाहर मिल जाते है। यानी थोडा और बुरे लहज़े में कहूँ तो-"जैसे घटिया फिल्मे वैसे ही दर्शक" तो गलत नहीं होगा। लेकिन इसी दौर में इरफ़ान खान जैसा अभिनेता इस कूड़े के ढ़ेर( हिन्दी सिनेमा) में पड़े एक हीरे के जैसे दूर से ही अपनी अपनी चमक से पहचान में आ जाता है। साधारण कद काठी और बिना बाई सेप और ऐप्स पैक के दुबला-पतला सा एक अभिनेता, कैसे इस मन्दबुद्धि सिनेमा में अपनी जगह बनाता है ये अचरज पैदा कर देता है। उनकी संवाद शैली, उनकी भाव-भंगिमाएं उनका बिना संवाद बोले ही मात्र आंखो से ही अपने अपने किरदार को जी लेने की कला शायद ही और किसी अभिनेता के पास हो। साधरण से दृश्य को अपने अभिनय से असाधारण बना देना कोई इर...

सब परेशान हैं

अगर थोड़ा ध्यान से देखा जाए तो पता चलेगा कि सब परेशान हैं..बस सबकी परेशानी अलग अलग है। आम आदमी परेशान है की बाकी दुनियां उसके जैसा क्यों नहीं सोचती है। वहीं बुद्धजीवी परेशान है की वो दुनियां से कुछ अलग क्यों नहीं सोच पा रहा है। विपक्षी परेशान है की उसे सत्ता की मलाई नहीं चाटने को मिल रही है।वहीं सत्ताधारी परेशान है की ये मलाई उसे बस पांच सालों के लिए चाटने को मिली है।कहीं ऐसा न हो की ये मलाई उससे छीन के विपक्षियों को मिल जाए। अभिभावक परेशान है की उनके बच्चे कहीं पढ़ाई को ताख पे न रख दें। जिससे उनका अपने बच्चों को आइंस्टाइन और गैलीलियो बनाने का सपना अधूरा न रह जाए (हालाकि इन अभिभावकों के खुद के पर्सनल बापों ने भी उन्हें आइंस्टाइन बनाने की कोशिश की थी, जो पूरी नहीं हुई। इसलिये वो भी परेशान ही मर गये थे)। वहीं बच्चे अपने जाहिल बाप द्वारा लाख टेस्टोस्टिरोन हार्मोन्स (सेक्स हार्मोन्स) कुचले जाने के बाद भी दिन रात बस अपने बाबू अपने सोना से मिलने के लिए परेशान हैं। तथाकथित राष्ट्रवादी दल इसलिए परेशान हैं क्योंकि उनके द्वारा राष्ट्रवाद की जो संकीर्ण परिभाषा बनाई गई है उसे पूरा देश मानने को तैयार...

मजबूर मज़दूर

वैसे तो 'हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है !' लेकिन क्या करें बोले बिना रहा भी नहीं जाता। बात इतनी सी है की सब अपने घरों मे क़ैद हैं और बेबसी से लॉकडाउन एक-एक दिन काट रहें हैं।ऐसे में अपने घर की वॉल पर लगी स्लिम टीवी पर गुजरात और महारास्ट्र में लाखों मज़दूरों को रोड पर इकट्ठा देख के सासें फूलने लगी है। बहुत ही संवेदनशील होने की कोशिश करने के बाद भी दिल के किसी कोने से आवाज़ आती है की "ये मज़दूर खुद तो मारेंगे ही ,हमें भी कोरोना से मार के मानेंगे!" लेकिन इस सब के बीच थोडा समय में पीछे चलके, बारीकी से इसपर विचार करते हैं।गौर करने वाली बात ये है कि इन मज़दूरों में अधिकतर मज़दूर उत्तर भारत के है। यही तो हम उत्तर भारतियों की खासियत है, चांद पर भी अगर कभी निर्माण कार्य हुआ तो मज़दूर हमारे उत्तर भारत से ही जाएंगे।  ऐसे में जब कोरोना महामारी भारत में पैर पसार रही थी तो इन मज़दूरो को लेकर नीति निर्माताओं ने क्या योजना बनाई थी ? वैश्विक परिदृश्य से इतर भारत में भी कोरोना की दस्तक फरवरी माह से ही हो गई थी। नीति निर्माताओं के पास इटली और ईरान में महामारी के कारण लॉकडाउन का अनुभव भी था।तो क...
इस ज़मीं पे रहो या बसो जा फलक जिन्दगी जब तलक उलझनें तब तलक एक अलग ही जहाँ को बसाये हुए इतनी उम्मीद खुद से लगाए हुए  दसियों सालों की प्लानिंग बनाए हुए लाखों ख्वाबों को दिल में सजाए हुए पल में डूबेगा सूरज मिलेना झलक ज़िन्दगी जब तलक उलझनें तब तलक पांच पुस्तों की परवाह करते हो जो पड़के लालच में पैसे पे मरते हो जो खामखां ही विवादों में पड़ते हो जो गैरों को खीच के आगे बढ़ते हो जो पाप का ये घड़ा जायेगा पर छलक जिन्दगी जब तलक उलझने तब तलक इस ज़मीं पे रहो या बसो जा फलक जिन्दगी जब तलक उलझने तब तलक                ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

विभीषन धर्म

ऐसे ही कहावत नहीं बनी है की "घर का भेदी लंका ढाए।" विभीषन ने बाकायदा इस कहावत को अपने कृत्य से चिरितार्थ किया है। हमेशा से ही सुनते चले आ रहे हैं की कोई भी अपने बच्चे का नाम 'विभीषन' नहीं रखता, जबकी उन्हे राम का परम भक्त कहा जाता है। कभी-कभी कोई चाहे जितना भी धर्म के पथ पे क्यूँ न हो, पर उसे इतिहास में कभी सम्मान नहीं मिलता। विभीषन का चारित्र भी कुछ ऐसा ही है। माना रावण अधर्म के पथ पर था। उसमे लाख बुराई थी। माना विभीषन अधर्म में रावण का साथ नहीं देना चाहते थे।ये सब होने के बाद भी इस प्रश्न को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता की आखिर विभीषन राम से क्यों जा मिले ? न्याय तो यही कहता है की उनको लंका से निकलने के बाद इस पूरे युद्ध से खुद को दूर कर लेना था। न की बेहूदगी पे उतर के राम को रावण के मारने के राज बताने चाहिये थे। रावण ने अपने जीवन में न जाने कितने पाप किए होंगे पर तब तो विभीषन स्वर्ण नगरी लंका में ही सूख भोग रहे थे। ये वही लंका थी जिसे रावण ने अपने भाई कुबेर से छीनी थी। लेकिन तब तो विभीषन को कोई समस्या नहीं थी।  इस कृत्य से तो ऐसा ही लगता है की जैसे ही उनको पता चला की ...

भक्ति और तर्क

शान्त चित्त और मस्ती में राम नाम जपता हुआ 'भक्ति' अपनी गली से गुजर ही रहा था की एक हज़ार सवालों वाला मुँह लेके 'तर्क' उसके सामने आ गया। 'तर्क' को देख के 'भक्ति' मुह बिचका के बोला, "आज हमारी गली में कैसे आ गये 'तर्क' भाई ?" जवाब में तर्क मुस्कुरा के बोला, "मै तर्क हूँ।मुझे कही आने जाने से मनाही नही है भक्ति डीयर!" "हाँ, ये बात तो अपने बारे में तुमने एकदम सही कही तर्क! जहाँ कही भी कोई भक्तिमय माहौल हो तो उसे बिगाड़ने के लिए तुम दालभात में मूसलचंद बनके आ ही जाते हो।" भक्ति, तर्क की बात पे ठंडी प्रतिक्रिया देते हुए बोला।" भक्ति की बात सुनकर तर्क उसे समझाते हुए बोला, "डीयर, इसमे बुरा मानने वाली कोई बात नहीं है।मै तो इन्सान के बुद्धि,विवेक की उपज हूँ।मेरा होना एकदम स्वाभविक है।" भक्ति बोला,"चलो अगर तुम्हारी बात मान भी ली जाए तो भी तुमको पहले से स्थापित आस्था पर तरह तरह के प्रश्न खड़े करके,उसे चोट नहीं पहुचानी चाहिए।" तर्क, भक्ति की बात सुनकर बोला,"मै किसी को चोट नहीं पहुचाना चाहता डीयर! पर मै क्य...