स्त्रियों का पुरुषीकरण
इस समय पूरी दुनियां का दिल 'स्त्री सशक्तिकरण' के लिए फड़फड़ा रहा है। सशक्तिकरण हो रहा है या नहीं,ये तो मुझे नहीं पता...चर्चा हर तरफ हो रही है।इन चर्चाओ को सुनकर मेरा दिल भी चरचराने लगा है।सोच रहा हूँ मैं भी लगे हाथ 'स्त्री सशक्तिकरण' पर चर्चा कर लूँ।बस एक समस्या है! दरसल मैं अपने ऊपर ढेर सारे प्रयोग करके ये जानने में कामयाब हो गया हूँ कि मैं पसंघावादी हूँ। जो पसंघे को जानते हैं उन्हें पता है कि पसंघे का उद्देश्य पराजू के दोनो पलड़ो(पक्ष) को बराबर रखना है।इसीलिए मैं स्त्री के साथ-साथ पुरुषों की भी दशा के बारे में सोचने को मजबूर हूँ।
ये सर्वविदित है कि दुनियां में पुरुषवादी सोच का दबदबा है। और मेरा ऐसा मानना है कि इसी दबदबे के नीचे स्त्री तो दबी है ही, साथ में बेचारा पुरुष भी दबा है।
कहने का मतलब ये है कि 'पुरुषवाद' और 'पुरुष' दोनो को अलग-अलग करके देखने की ज़रूरत है।
संसार स्त्रियोचित और पुरषोचित ...दो तरह के व्यवहार में बंटा है। जहाँ पुरुषोचित व्यवहार, कर्म को श्रेष्ठ माना जाता है,वही स्त्रियोचित व्यवहार को हेय और उपहास की दृष्टि से देखा जाता है। जैसे समाज में रोना, भावुक होना,ये सभी स्त्रियोचित गुण माना जाता है। समाज पुरुषों से ये उम्मीद करता है कि वो रोएं नहीं।रोते हुए लोगों को समझाया जाता है कि 'मर्द' बनो। बिचारे पुरुष इसीलिए स्त्री की अपेक्षा ज्यादा हार्ट अटैक से मरते हैं क्योंकि स्त्री रोकर अपना दिल हल्का कर लेती हैं, जबकी पुरुष, पुरुषवाद के नीचे दबा रहता है।
मज़ेदार बात ये है कि आजकल स्त्रियों का 'पुरषीकरण' हो रहा है। उन्हें भी 'मर्द' बनाया जा रहा है।प्रसिद्ध समाजशास्त्री 'श्रीनिवासन' ने 'संस्कृतीकरण'का सिद्धान्त बताते हुए कहा था कि जब निम्न जातियां उच्च जातियों से प्रभावित होकर उच्च जातियों के कर्मों को अपना लेती हैं तो ये संस्कृतीकरण कहलाता है। जैसे- उच्च जातियों से प्रभावित होकर निम्न जातियों का जनेव पहनना ।उसी तरह पुरषीकरण वो प्रक्रिया है जिसके तहत स्त्री, पुरुषवाद से प्रभावित होकर पुरुषों के स्वभाव को अपना लेती हैं। अब स्त्रियों को 'मर्दानी' कह कर संबोधित किया जा रहा है। अब स्त्री होना एक गाली है।
पुरुषवादी समाज में संघर्ष, द्वन्द्व, युद्ध ...को श्रेष्ठ माना गया है और यही पुरुषवाद का स्वभाव है। जबकी त्याग, ममता, करुणा ...ये स्त्री का स्वाभाविक गुण है। पर पुरुषवादी समाज में त्याग , वत्सल्य, करुणा का स्थान दोयम दर्जे का है।अत: अब स्त्रियां भी पुरुष स्वभाव को अपनाकर पुरुष बनती जा रही हैं। इससे बड़ी पुरुषवाद की जीत और क्या हो सकती है ?
स्त्री सशक्तिकरण के तथाकथित ठेकेदार भी दिन रात स्त्रियों का पुरुषीकरण करने में लगे हैं। संसार का सारा साहित्य पुरुषवादी है। पश्चिम में तो स्त्रियां पूरी तरह पुरुषवाद के प्रभाव में हैं...लेकिन भारत में दो तरह के सामाजिक वर्ग हैं। भारत में जहाँ एक तरफ ऐसा वर्ग है जो स्त्री को 'देवी' बनाकर रखना चाहता है और इसी बहाने वो स्त्रियों का शोषण कर रहे हैं।वहीं दूसरी तरफ आधुनिक तथाकथित स्त्री सशक्तिकरण के ठेकेदार हैं जो स्त्री को पुरुष बनाने में लगे हैं। ये दोनो घोर पुरुषवादी लोग हैं । ये शोषण का एक तरीका है कि या तो स्त्री को देवी बनाकर उसे लूटो ...या फिर उसे परुष बना दो। स्त्री मात्र स्त्री रहे...ये कोई नहीं चाहता।
-- दीपक शर्मा 'सार्थक'
ये सर्वविदित है कि दुनियां में पुरुषवादी सोच का दबदबा है। और मेरा ऐसा मानना है कि इसी दबदबे के नीचे स्त्री तो दबी है ही, साथ में बेचारा पुरुष भी दबा है।
कहने का मतलब ये है कि 'पुरुषवाद' और 'पुरुष' दोनो को अलग-अलग करके देखने की ज़रूरत है।
संसार स्त्रियोचित और पुरषोचित ...दो तरह के व्यवहार में बंटा है। जहाँ पुरुषोचित व्यवहार, कर्म को श्रेष्ठ माना जाता है,वही स्त्रियोचित व्यवहार को हेय और उपहास की दृष्टि से देखा जाता है। जैसे समाज में रोना, भावुक होना,ये सभी स्त्रियोचित गुण माना जाता है। समाज पुरुषों से ये उम्मीद करता है कि वो रोएं नहीं।रोते हुए लोगों को समझाया जाता है कि 'मर्द' बनो। बिचारे पुरुष इसीलिए स्त्री की अपेक्षा ज्यादा हार्ट अटैक से मरते हैं क्योंकि स्त्री रोकर अपना दिल हल्का कर लेती हैं, जबकी पुरुष, पुरुषवाद के नीचे दबा रहता है।
मज़ेदार बात ये है कि आजकल स्त्रियों का 'पुरषीकरण' हो रहा है। उन्हें भी 'मर्द' बनाया जा रहा है।प्रसिद्ध समाजशास्त्री 'श्रीनिवासन' ने 'संस्कृतीकरण'का सिद्धान्त बताते हुए कहा था कि जब निम्न जातियां उच्च जातियों से प्रभावित होकर उच्च जातियों के कर्मों को अपना लेती हैं तो ये संस्कृतीकरण कहलाता है। जैसे- उच्च जातियों से प्रभावित होकर निम्न जातियों का जनेव पहनना ।उसी तरह पुरषीकरण वो प्रक्रिया है जिसके तहत स्त्री, पुरुषवाद से प्रभावित होकर पुरुषों के स्वभाव को अपना लेती हैं। अब स्त्रियों को 'मर्दानी' कह कर संबोधित किया जा रहा है। अब स्त्री होना एक गाली है।
पुरुषवादी समाज में संघर्ष, द्वन्द्व, युद्ध ...को श्रेष्ठ माना गया है और यही पुरुषवाद का स्वभाव है। जबकी त्याग, ममता, करुणा ...ये स्त्री का स्वाभाविक गुण है। पर पुरुषवादी समाज में त्याग , वत्सल्य, करुणा का स्थान दोयम दर्जे का है।अत: अब स्त्रियां भी पुरुष स्वभाव को अपनाकर पुरुष बनती जा रही हैं। इससे बड़ी पुरुषवाद की जीत और क्या हो सकती है ?
स्त्री सशक्तिकरण के तथाकथित ठेकेदार भी दिन रात स्त्रियों का पुरुषीकरण करने में लगे हैं। संसार का सारा साहित्य पुरुषवादी है। पश्चिम में तो स्त्रियां पूरी तरह पुरुषवाद के प्रभाव में हैं...लेकिन भारत में दो तरह के सामाजिक वर्ग हैं। भारत में जहाँ एक तरफ ऐसा वर्ग है जो स्त्री को 'देवी' बनाकर रखना चाहता है और इसी बहाने वो स्त्रियों का शोषण कर रहे हैं।वहीं दूसरी तरफ आधुनिक तथाकथित स्त्री सशक्तिकरण के ठेकेदार हैं जो स्त्री को पुरुष बनाने में लगे हैं। ये दोनो घोर पुरुषवादी लोग हैं । ये शोषण का एक तरीका है कि या तो स्त्री को देवी बनाकर उसे लूटो ...या फिर उसे परुष बना दो। स्त्री मात्र स्त्री रहे...ये कोई नहीं चाहता।
-- दीपक शर्मा 'सार्थक'
Comments
Post a Comment