इस बार गुलाल की वर्षा में
हर अंग उमंग से भर जाए...

निज चित्त के चित्र में रंग भरे
ये विचित्र सी हिय में तरंग भरे
इस बार बयार ये पूरब की
मदहोश सभी को कर जाए...

क्यों थाम के रखा है ख़ुद को
क्यों बांध के रखा है ख़ुद को
इस बार प्यार की आंधी में
बंधन सब टूट के गिर जाए...

कुछ गाढ़े रंग, कुढ़ फीके रंग
सतरंगी इंद्रधनुष से रंग
इस बार सभी को साथ लिए
हर रंग के संग संवर जाए...

माना है धरा पे द्वंद्व छिड़ा
माना है नभ का रंग उड़ा
इस बार मिले कुछ ऐसे गले
संसार घृणा से उबर जाए..

इस बार गुलाल की वर्षा में
हर अंग उमंग से भर जाए...
 
             -- दीपक शर्मा 'सार्थक'






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