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Showing posts from March, 2017

ऐसी सतर्कता किस काम की !

"बहुत लापरवाह हो !" ये एक एेसा वाक्य है जो अक्सर मुझे अपने बारे में सुनना पड़ता है। शायद मैं लापरवाह हूँ भी! पर देखा जाए तो ज़िन्दगी का मज़ा तो लापरवाही में ही है।इसके पीछे मेरा अपना तर्क है। मुझे लगता है कि इस समय पूरी दुनियां के लोगो की सतर्कता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ग्लोबल वार्मिग के पीछे एक कारण ये भी है कि लोगो में सतर्कता का स्तर बढ़ता जा रहा है। वैसे तो लोगो में बढ़ती सतर्कता के पीछे कई कारण हैं पर सतर्कता बढ़ाने में सबसे बड़ी भूमिका नेताओ की है। ये राजनेता दिन-रात मेहनत करके, कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर लोगो को सतर्क कर रहे हैं।इन नेताओ को डर है कि कहीं लोग धर्म और जाति को लेकर लापरवाह हो गए और आपस में घुल मिल कर रहने लगे तो वे बिचारे राजनीति कैसे करेंगे? एक तरह से देखा जाए तो धर्म और जाति के आधार पर एक दूसरे के प्रति लोगो को सतर्क करने में नेता सफल रहे हैं पर इस सतर्कता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा 'प्रेम' है। मज़ेदार बात ये है कि प्यार तो लापरवाही में ही होता है, सतर्क व्यक्ति अकेला ही मरता है। उसे कभी प्या...

बहुत बोलते हो सरकार !

बहुत बोलते हो सरकार ! सच्चा हो या फर्जी अच्छा बुरा कुछ भी नहीं तोलते हो सरकार बहुत बोलते हो सरकार ! जल जाए सारी बस्ती लग जाए आग जब भी मुह खोलते हो सरकार बहुत बोलते हो सरकार ! जीना सबका हराम कर मज़हबों के नाम पर ज़हर घोलते हो सरकार बहुत बोलते हो सरकार !              -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

कमाल के कारीग़र हो !

कमाल के कारीग़र हो ! बंजर होठों को खींच कर फीकी मुस्कान से सींच कर सारा दर्द पी जाते हो कमाल के कारीग़र हो ! ऊसर उदासी को छुपाकर झूठा उत्साह दिखाकर बस यूँ ही जी जाते हो कमाल के कारीग़र हो ! बेजान ख़्वाहिश को ओढ़ कर टूटे सपनो को जोड़ कर चाक़ जिगर सीं जाते हो कमाल के कारीग़र हो ! सपनों को अपने छोड़ कर  ख्वाहिशों का गला घोंट कर  हर जिम्मेदारी निभाते हो  कमाल के कारीगर हो !               ©️   दीपक शर्मा 'सार्थक'
इस बार गुलाल की वर्षा में हर अंग उमंग से भर जाए... निज चित्त के चित्र में रंग भरे ये विचित्र सी हिय में तरंग भरे इस बार बयार ये पूरब की मदहोश सभी को कर जाए... क्यों थाम के रखा है ख़ुद को क्यों बांध के रखा है ख़ुद को इस बार प्यार की आंधी में बंधन सब टूट के गिर जाए... कुछ गाढ़े रंग, कुढ़ फीके रंग सतरंगी इंद्रधनुष से रंग इस बार सभी को साथ लिए हर रंग के संग संवर जाए... माना है धरा पे द्वंद्व छिड़ा माना है नभ का रंग उड़ा इस बार मिले कुछ ऐसे गले संसार घृणा से उबर जाए.. इस बार गुलाल की वर्षा में हर अंग उमंग से भर जाए...                -- दीपक शर्मा 'सार्थक'

स्त्रियों का पुरुषीकरण

इस समय पूरी दुनियां का दिल 'स्त्री सशक्तिकरण' के लिए फड़फड़ा रहा है। सशक्तिकरण हो रहा है या नहीं,ये तो मुझे नहीं पता...चर्चा हर तरफ हो रही है।इन चर्चाओ को सुनकर मेरा दिल भी चरचराने लगा है।सोच रहा हूँ मैं भी लगे हाथ 'स्त्री सशक्तिकरण' पर चर्चा कर लूँ।बस एक समस्या है! दरसल मैं अपने ऊपर ढेर सारे प्रयोग करके ये जानने में कामयाब हो गया हूँ कि मैं पसंघावादी हूँ। जो पसंघे को जानते हैं उन्हें पता है कि पसंघे का उद्देश्य पराजू के दोनो पलड़ो(पक्ष) को बराबर रखना है।इसीलिए मैं स्त्री के साथ-साथ पुरुषों की भी दशा के बारे में सोचने को मजबूर हूँ। ये सर्वविदित है कि दुनियां में पुरुषवादी सोच का दबदबा है। और मेरा ऐसा मानना है कि इसी दबदबे के नीचे स्त्री तो दबी है ही, साथ में बेचारा पुरुष भी दबा है। कहने का मतलब ये है कि 'पुरुषवाद' और 'पुरुष' दोनो को अलग-अलग करके देखने की ज़रूरत है। संसार स्त्रियोचित और पुरषोचित ...दो तरह के व्यवहार में बंटा है। जहाँ पुरुषोचित व्यवहार, कर्म को श्रेष्ठ माना जाता है,वही स्त्रियोचित व्यवहार को हेय और उपहास की दृष्टि से देखा जाता है। जैसे...
हम ग़ज़ल समझ,जिसे गाते रहे वो तो ओछी तुकबन्दी निकली जिस प्यार में ख़ुद को लुटाते रहे वो प्यार नहीं ख़ुदगर्ज़ी निकली झूठे दावे और वादे है सारी बातें फर्ज़ी निकली सोचा हम तकदीर के मालिक हैं अल्लाह तेरी मर्ज़ी निकली...                -- दीपक शर्मा 'सार्थक'