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प्रेम गीत

घटाओं में खुशबू बिखरने लगी है हंसी तेरे अधरो पे खिलने लगी है सरोवर में खिलते कमल पुष्प जैसे नयन ये कथानक नया लिख रहे हैं  गुलाबी ये गालों की रंगत है जैसे प्रकृति ने स्वयं ही इन्हें रंग दिए हैं घने गेसुओं को संवारा है जबसे मेरी उलझने भी सुलझने लगी हैं घटाओ में खुशबू बिखरने लगी है हंसी तेरे अधरों पे खिलने लगी है (१) जेहन में नयन ये बसे हैं तुम्हारे गहन इस अंधेरे में दीपक के जैसे नजर भर के जिसपे नजर तुमने डाली हृदय को वो अपने संभाले भी कैसे सदा निष्कपट नेत्र, निश्छल निगाहें निहित प्रेम से ही निखरने लगी हैं घटाओ में खुशबू बिखरने लगी है हंसी तेरे अधरों पे खिलने लगी है (२)               © दीपक शर्मा ’सार्थक’

खामोश लहज़ा

ये खामोश लहेज़ा टटोला ही जाए जरूरी नहीं है कि बोला ही जाए ! ज़हर ही ज़हर दिख रहा जिंदगी में तो क्यों न तबीयत से घोला ही जाए ! दफन है जो किरदार सदियों से दिल में परत दर परत उसको खोला ही जाए ! ज़माने से बैठे हैं चौखट पे तेरी चलो अब कहीं और डोला ही जाए ! ये माना है ग़ुरबत तो क्या इसका मतलब मोहब्बत को दौलत से तोला ही जाए !                    ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

हृदय की जटिल प्रकिया

हृदय से हृदय को छुएं भी तो कैसे सुना है बहुत ही जटिल प्रक्रिया है किसी के हृदय पे अहम का है पर्दा कहीं पर वहम ही परछाइयां हैं कहीं तो हृदय की जगह पे है पत्थर कभी दुनियादारी की पाबंदियां हैं  ये संवेदनाएं सुनाएं भी किसको ये मतलबपरस्ती कि ही बस्तियां हैं हृदय से हृदय को छुएं भी तो कैसे सुना है बहुत ही जटिल प्रक्रिया है ! कहीं उलझनों का बिछा जाल है तो किसी के हृदय में भरी है उदासी द्रवित है कोई दर्द में इक क़दर की दिखे है उसे बस निराशा ख़ुमारी किसी को किसी पे भरोसा नहीं है महज स्वार्थपरता से ही सब क्रिया है हृदय से हृदय को छुएं भी तो कैसे सुना है बहुत ही जटिल प्रक्रिया है ! कोई प्रेम को जो उजागर भी कर दे तो दूषित प्रथाएं निगल जाएं उसको पसोपेश में ही फंसे हैं यहां सब कोई हाल-ए-दिल भी सुनाए तो किसको ये उलझन, ये पीड़ा, ये आंसू सभी के हृदय में सहज ही कोई भर दिया है हृदय से हृदय को छुएं भी तो कैसे सुना है बहुत ही जटिल प्रक्रिया है !                 © दीपक शर्मा ’सार्थक’

व्यथित मन

जब बोल नहीं निकले मुंह से जब शब्द खतम हो जाते हैं जब छिन्न–भिन्न होकर सपने आंखों में ही खो जाते हैं जब चित्त अस्थिर होने से एकाकी हम हो जाते हैं जब मन इतना व्याकुल हो कि कोई सुख नहीं सुहाते हैं जब शूल हृदय में चुभते हैं पीड़ा में खुद को पाते हैं जब अपने और पराए सब उपहास ही करने आते हैं तब घोर अंधेरी राहों में वो सूर्य की भांति चमकता है फिर थाम के उंगली मेरी वो निज पथ पर लेकर बढ़ता है करुणा से भरे हृदय से जब आलिंगन मेरा करता है सब दर्द व्यथा खो जाती है व्यक्तित्व निखरने लगता है               © दीपक शर्मा ’सार्थक’

राम हैं त्याग..त्याग हैं राम

राम बसे हैं त्याग में,जग  ढूंढे उनको अधिकारों में जिसने त्याग दिया सिंहासन तत क्षण जैसे तिनका सा  राष्ट्रधर्म पालन में जिसने त्याग किया निज वनिता का त्याग किया सर्वस्व सुखों का चले सदा अंगारों में राम बसे हैं त्याग में, जग ढूंढे उनको अधिकारों में  कर्तव्यों की राह पे चलकर राम ने यश को पाया था अधिकारों की जगह राम ने त्याग का पथ अपनाया था मरा–मरा जप रहे भूलवश लोग घने अंधियारों में राम बसे हैं त्याग में, जग ढूंढे उनको अधिकारों में  राम के नाम पे अधिकारों का जो षड्यंत्र चलाते हैं भूमि के टुकड़े की खातिर आपस में सबको लड़वाते हैं राम हैं तीनों लोक के स्वामी नेति–नेति संसारो में राम बसे हैं त्याग में, जग ढूंढे उनको अधिकारों में            © दीपक शर्मा ’सार्थक’

भूख और रोटी

रूप रोटी का बदल के जबसे पिज्जा हो गया है भूख भी तब्दील होकर के हवस सी बन गई है ! अब गुजारे में नहीं दो जून की रोटी है काफी नित्य बाजारीकरण से लालसाएं बढ़ गई हैं ! नोच करके कफ़न भी ये खा रहे हैं पशु के जैसे गिद्ध इंसानों में शायद होड़ जैसी लग गई है ! निज धरा को चीर करके कर रहे दोहन अनर्गल रक्त पीने की पिपासा कम न लेकिन पड़ रही है ! मर रहे थे भूख से वो आज खाकर मर रहे हैं खा के मैदा, नमक, चीनी  शुगर प्रतिपल बढ़ रही है ! भिज्ञ होकर भी बना अनभिज्ञ बैठा है ज़माना पर कभी नज़रें चुराने से मुसीबत कम हुई है ?           ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’             मो. नं. – 6394521525

रमेश वाजपेई विरल

रच रहे इतिहास हैं जो नित्य शिक्षा के जगत में आदि शंकर की तरह निःस्वार्थ सेवा में लगे हैं ज्योति शिक्षा की जलाकर हर लिया तम, हर हृदय से राष्ट्र सेवा में सकल सर्वस्व अर्पित कर रहे हैं बिन किसी अवलंब के ही छू लिया है गगन को भी खुद के ही पुरुषार्थ से वट वृक्ष के जैसे खड़े हैं जटिलता की भीड़ में जो हैं ’विरल’, पर उर सरल प्रतिपल प्रबल आवेग से निर्भीक होकर के बढ़े हैं हो परिस्थिति कोई भी पर नित हंसी अधरों पे जिनके दृष्टि सम्यक, सौम्यता की मूर्ति वो सबको लगे हैं  राम जिनके ईश हैं, वो ’रमेश’ होकर राममय हर ऋतु में वो ऋतुराज बनकर राष्ट रौशन कर रहे हैं                               ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’