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पर्यावरण और हम

आज पर्यावरण प्रेमियों ने अपना पर्यावरण प्रेम जाहिर करके पूरा सोशल मीडिया हिलाकर रख दिया है। हरे-भरे स्टैटस देख-देख के मेरी आखें तर गईं है। प्रकृति प्रेम और उसके संरक्षण को लेकर लंबी-लंबी  लिफ्फेबाजी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर की जा रही है। पर हकीकत ये है कि ऐसे पर्यावरण प्रेमी मात्र सोशल मीडिया के कीड़े भर हैं। या यूं कह लें कि ये सोशल वाइरस हैं, और वाइरस के बारे में मशहूर है कि वो वैसे तो मृत अवस्था में रहते हैं लेकिन जैसे ही अनुकूल वातावरण मिलता है ये जीवित हो जाते हैं।  इसी तरह ये पर्यावरण प्रेमी पर्यावरण दिवस वाले दिन जीवित हैं (या कम-से-कम जीवित होने का दिखावा भर करते हैं) और जैसे ही दिन खत्म होता हैं इनकी पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी संवेदनाएं मृत हो जाती हैं।  इस विशेष दिवस पर पौधों की नर्सरी से लगाने के लिए पेड़ मंगाए जाते हैं। फिर तुलसीदास की शैली में बोलें तो ,  " बिनु पग चले सुने बिनु काना..कर विधि कर्म करे बिधि नाना।" वाले दिव्य नेता जी उस पौधे को लगाने या कह लें उस निरीह पौधे को लगाते हुए अपनी फोटो खिंचवाने के लिए आते हैं। फिर उस पौधे को लगाकर वो विभिन्न मुद...

एक दृष्टि में नेहरू

वैसे तो आज का दिन पंडित नेहरू को याद करने का है लेकिन प्रश्न ये उठता है कि नेहरू याद किसको हैं। दशकों पहले नेहरू को लेकर कुछ संस्थाओ और उनसे जुड़े पाखंडी लोगों ने अभियान चलाकर ज़हर की खेती की। उनको ग्यासुद्दीन गाजी का वंशज बताया गया। उनको कामुक अश्लील व्यक्ति बताकर दुष्प्रचार किया गया। और अब तो इस ज़हर से सींच कर तैयार की गई पूरी एक पीढ़ी है जो दिन रात,  बिना इतिहास की एक पुस्तक पलटे नेहरू को गाली देने में लगी है।नेहरू की सोच का यदि 10 पर्सेंट भी अगर सोच लें तो जिनकी खोपड़ी दग जाए ऐसे लोग भी नेहरू का मूल्यांकन करने मे लगे हैं। हम भारतीयों की शुरू से समस्या रही है। खुद चाहे जैसे हों लेकिन नेता हमको ऐसा चाहिए जो ब्रह्मचारी हो। महिलाओ से जिसका कोई लेना-देना न हो। नेहरू की विभिन्न महिलाओं के साथ खींची गई तस्वीरों को आधार बनाकर उनकी आलोचना करते हैं।उनको ऐयाश बताने में लगे रहते हैं। वही दूसरी तरफ लाल बहादुर शास्त्री जी की अपनी पत्नी के साथ दो फिट दूर बैठी एक फोटो को आदर्श बताने में लगे हैं(इसमें कोई दो राय नहीं कि वो इस देश के आदर्श हैं,  लेकिन इसका कारण ये नहीं कि वो अपनी पत्नी से ...

बहुत कमर्शल लगते हो

बहुत कमर्शल लगते हो ! तुम्हारा शेयर मार्केट वाला चहेरा सेंसेक्स सा बदन बजट सी मुस्कुराहट घायल कर जाती है ! तुम्हारी रियल स्टेट जैसी  मजबूत हस्ती  तुम्हारी डॉलर जैसी  आसमान में छलांग लगाती चाल  मन को मोहित कर जाती है ! लेकिन! वो म्युचुअल फंड वाला रिश्ता जिसे तुमने तोड़ दिया चुभ जाता है कभी-कभी ! वो साथ निभाने वाली  कसमों वाला फिक्स डिपॉजिट  जिसे अपनी जिद में तुमने फोड़ दिया  रिस जाता है कभी-कभी ! पर इतना कुछ होने के बाद भी  तुम्हारी ग्लोबल अदाएं दिल की धड़कनों को इनफ्लेशन सा बढ़ा देती हैं ! तुमसे मिलने की 'टर्म एंड कंडीशन' मेरी भावनाओं को  रिसेशन की तरह ढ़हा देती हैं! कभी-कभी सोचता हूं  तुम्हारी ये प्राॅफिट-लाॅस आँकती आखें  जो मोहब्बत को भी नफा-नुकसान से तौलती हैं ! तुम्हारा ये एक्सपोर्ट इम्पोर्ट वाले  दिल की ख्वाहिशें  जो एक जगह से दुसरी जगह  बदलती रहती हैं ! इसका आखिर हिसाब-किताब  कैसे रख लेते हो ! हर वक्त जैसे स्वार्थी  बाज़ार में खड़े हो ! पर देखना.. इतना ध्यान रखना, हर वक्त बाजार में खड़े-खड़े  कहीं...
बिछड़ने और मिलने में  रहे समभाव अंतर्मन  जगत का मोह क्या करना  जो एक दिन छूट जाना है! है नाजुक मोह की रस्सी  फँसा संसार है जिसमें  निरंतर कुछ नहीं टिकता  ये बंधन टूट जाना है! कपट से लूट करके धन  अनर्गल कर रहे संचय  घड़ा ये पाप का भर के  किसी दिन फूट जाना है! कोई शिव की तरह धारण  न करता कंठ में विष को  तनिक गलती हुई मुँह से  हलाहल घूंट जाना है!           ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

नया फरमान आया है

ज़बाने काट लेंगे वो, जो मुह खोलेगा अब कोई  हमें पेरेंगे कोल्हू में नया आदेश आया है ! जो कोसों दूर बैठे हैं, धरातल की हकीकत से  सुधारेंगे वो अब सबको नया संदेश आया है ! कमीशनखोर लेंगे अब, कमीशन और भी ज्यादा  शिकारी खुद बदल कर के नया एक भेष आया है ! नवाचारी बने फिरते हैं, सिस्टम के जो दीमक थे  बदलते रंग गिरगिट सा, नया रंगरेज आया है ! ये सिस्टम है बना अब सल्तनत, उनकी बपौती की  नया तुगलक नए फरमान से लबरेज़ आया है ! कहेंगे कि भरोगे दूध चलनी में वो अब सबसे दिखा के राम का सपना कोई लंकेश आया है !                   ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

सोचें या न सोचें

पहली और सबसे जरूरी बात, सही से सोचना शुरू करें। इसी तरह कभी-कभी ये भी जरूर सोचे की आखिर आप क्या सोच रहे हैं। या यूं कह लें कि आखिर आप क्या सोचा करते हैं। और अगर आप बहुत बारीकी से सोचने के बाद ये समझने में सफल हो गए कि आखिर आप क्या सोच रहे हैं, तब इसके अगले चरण में आप ये सोचें कि आखिर आप जो सोच रहे हैं वही क्यों सोचते रहते हैं। ये भी सोचें कि कहीं ऐसा तो नहीं..कि आपकी सोच को कोई अदृश्य शक्ति, सोशल मीडिया या न्यूज चैनल, या पोस्टर बैनर के माध्यम से एक विशेष दिशा में सोचने को मजबूर कर रही है। ये भी सोचें कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आपकी सोच पर आपका कोई अधिकार ही नहीं हैं। कोई दूर बैठा अपने मायाजाल से आपकी सोच को बुन रहा है। और कहीं ऐसा तो नहीं कि आप अपनी ही सोच के जाल में फंसते जा रहे हैं। ये कुछ उसी तरह घटित होता है जैसे किसी प्रोडक्ट का एडवर्टाइज आप टीवी पर बार-बार न चाहते हुए भी देखते हैं। वो ऐड हज़ारों बार आपकी आखों के सामने से गुजरता हैं। आपके न चाहते हुए भी आपके दिमाग में वो प्रोडक्ट फीड हो जाता है। और इसपर आपका कोई वश भी नहीं है।  इस तरह यदि आप इस मायाजाल को सोचने और समझने में सफल हो...

मानव अधिकारी अमेरिका

विश्वास मानिए जैसे ही महान अमेरीका के वर्तमान विदेश मंत्री जी के मुह से "मानवाधिकार उलंघन" शब्द निकला होगा, वैसे ही हिरोशिमा और नागासाकी नामक शहरों में मारे गए करोड़ों नागरिकों ने असमान से उसके मुह पर थूका होगा। इन दोनों शहरों पर जब अमेरिका द्वारा परमाणु बम का इस्तेमाल किया गया तो पूरे विश्व में इसकी थू थू हुई। युद्ध के जानकार लोगों ने जब उसके इस कृत्य पर सवाल उठाते हुए पूछा कि, " युद्ध में जापान तो वैसे भी हारने ही वाला था फिर आपने परमाणु बम का स्तेमाल क्यूँ किया। तो इस धूर्त अमेरिका ने जवाब दिया कि, "हम इस युद्ध को लंबा नहीं खींचना चाहते थे।" जबकि सच यह है कि इन बम धमाकों की धमक से वो पूरे विश्व को धमकाना चाहता था कि आज से पूरी दुनियां के हम चौधरी हैं। हमसे कोई पंगा नहीं ले सकता। थूका तो पूरे विश्व के मानवाधिकार संगठनो ने इसपर तब भी था जब विश्व युद्ध की आग में दुनियां जल रही थी और ये घटिया कैपिटलिस्ट देश, पूरे विश्व को हथियार बेंच रहा था।पर किया क्या जाये शुरू से ही महान अमेरिका के नेता मुह पर थुकवाने के आदी हो चुके हैं।  मानवाधिकार का हवाला देने पर अमेरिका क...