सोचें या न सोचें

पहली और सबसे जरूरी बात, सही से सोचना शुरू करें। इसी तरह कभी-कभी ये भी जरूर सोचे की आखिर आप क्या सोच रहे हैं। या यूं कह लें कि आखिर आप क्या सोचा करते हैं। और अगर आप बहुत बारीकी से सोचने के बाद ये समझने में सफल हो गए कि आखिर आप क्या सोच रहे हैं, तब इसके अगले चरण में आप ये सोचें कि आखिर आप जो सोच रहे हैं वही क्यों सोचते रहते हैं। ये भी सोचें कि कहीं ऐसा तो नहीं..कि आपकी सोच को कोई अदृश्य शक्ति, सोशल मीडिया या न्यूज चैनल, या पोस्टर बैनर के माध्यम से एक विशेष दिशा में सोचने को मजबूर कर रही है।
ये भी सोचें कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आपकी सोच पर आपका कोई अधिकार ही नहीं हैं। कोई दूर बैठा अपने मायाजाल से आपकी सोच को बुन रहा है। और कहीं ऐसा तो नहीं कि आप अपनी ही सोच के जाल में फंसते जा रहे हैं। ये कुछ उसी तरह घटित होता है जैसे किसी प्रोडक्ट का एडवर्टाइज आप टीवी पर बार-बार न चाहते हुए भी देखते हैं। वो ऐड हज़ारों बार आपकी आखों के सामने से गुजरता हैं। आपके न चाहते हुए भी आपके दिमाग में वो प्रोडक्ट फीड हो जाता है। और इसपर आपका कोई वश भी नहीं है।
 इस तरह यदि आप इस मायाजाल को सोचने और समझने में सफल हो जाते हैं तो इसके अगले चरण में ये सोचना शुरू करें कि आपकी सोच, जिसे कोई दूसरा नियंत्रित कर रहा है, उस सोच से आप कब आजाद होंगे। इसी के साथ-साथ ये भी सोचना शुरू करें कि कहीं ऐसा न हो कि आपकी पराधीन सोच..कुंठा में न बदल जाये और आप मानसिक रूप से बीमार हो जाये।
रुकिए...रुकिए ! एक बार ये भी जरूर सोच लें कि कहीं आप पहले से ही मानसिक रूप से बीमार तो नहीं हो चुके है। कहीं कुंठा ग्रस्त होकर आपके हृदय में बहने वाला प्रेम का झरना सूख तो नहीं गया है। कहीं अकारण ही आपको छोटी-छोटी बात पर गुस्सा तो नहीं आता ! कहीं किसी को खिलखिला कर हँसते देख कर बिना मतलब के ऐसे ही आपको चिड़ तो नहीं पैदा होती ! कहीं ऐसा तो नहीं कि आप अजनबी तो अजनबी, अपनों से भी डरने लगे हैं। कहीं आप हर किसी को शक की नजर से तो नहीं देखने लगे हैं। और सबसे जरूरी बात, कहीं ऐसा तो नहीं कि आप नेता बनने की सोचने लगे हैं।
अगर ऐसा कुछ है तो फिर आपको इलाज की जरूरत है। और इसका इलाज ये है कि आप सोचना बंद कर दें। सुबह और शाम बीस मिनट ही सही...कुछ न सोचें ! और यहां "कुछ नहीं सोचने" से मेरा मतलब अपने मस्तिष्क को विचार शून्य कर देने से है।लेकिन ये एक दिन में नहीं होगा। आपके दिमाग को सोचने की लत लग गई है। और ये लत, ड्रग्स से भी बदतर है। ऐसा कोई क्षण नहीं है जब आप कुछ न कुछ सोच न रहे हों। मतलब हाल ये है कि हम अपना तो सोचते ही रहते हैं साथ ही साथ इतना भी सोच डालते हैं कि सामने वाला हमारे बारे में क्या सोच रहा है। हमारे पड़ोसी,  रिश्तेदार, मित्र सबके बारे में अंदाजा लगाते रहते हैं कि वो क्या सोच रहे हैं। अपने साथ-साथ दूसरे के हिस्से का भी सोच डालते हैं। दूसरे लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे, यही सोच- सोच के मरे जा रहे हैं। इसीलिए मैं इसे ड्रग्स बोल रहा हूं।
वैसे जानकारी के लिए बता दूँ कि कुछ न सोचना यानी मस्तिष्क को कुछ देर के लिए शून्य कर देना, संसार की सबसे बड़ी साधना है। पतंजलि रचित अष्टांग मार्ग में इस मुद्रा को ही 'ध्यान' कहा गया है। जबकि अधिकर लोग इस भ्रम में जीते हैं कि "ध्यान" अपने आराध्य का स्मरण करना है। पतंजलि के अनुसार जब कोई व्यक्ति अपने मस्तिष्क को समस्त विचारों से मुक्त कर लेता है तो ये ध्यान कहलाता है।  और जब ध्यान की मुद्रा लंबी हो जाए तो यही अष्टांग मार्ग का आठवां चरण..यानी "समाधि" कहलाती है।
खैर फिलासफी बहुत हो गई। आपलोग अपना ध्यान रखें (असली वाला ध्यान!) न्यूज चैनल कम देखें! और सबसे जरूरी बात अपनी सोच की निगरानी करते रहें।कम-से-कम तब तक तो जरूर तबतक वो सोच आपकी अपनी है। 

                       ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'


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