बिछड़ने और मिलने में 
रहे समभाव अंतर्मन 
जगत का मोह क्या करना 
जो एक दिन छूट जाना है!

है नाजुक मोह की रस्सी 
फँसा संसार है जिसमें 
निरंतर कुछ नहीं टिकता 
ये बंधन टूट जाना है!

कपट से लूट करके धन 
अनर्गल कर रहे संचय 
घड़ा ये पाप का भर के 
किसी दिन फूट जाना है!

कोई शिव की तरह धारण 
न करता कंठ में विष को 
तनिक गलती हुई मुँह से 
हलाहल घूंट जाना है! 

         ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'







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