थामे कोई बुनियाद को कितने भी जतन से गिरती ही जा रही है ये अवैध खनन से ! वो लूटते ही जा रहे हम लुट रहे बेबस है वास्ता किसे मेरे अधिकार हनन से ! रस्ता बसन्त देख के वापस चला गया पतझड़ नहीं राज़ी हुआ जाने को चमन से ! वो खून का प्यासा बिछाए जा रहा लाशें हम रस्ता ढूँढे कोई मिल जाए अमन से! खैरात का खा के यहाँ बुज़दिल हुई अवाम उम्मीद क्या करें कोई अब अहले वतन से ! कहने को हैं ज़िन्दा मगर ये कब के मर चुके किस काम की दुनियां है इसे ढक दे कफन से ! बासी परंपराओ की ढकोसले बाजी कुछ भी नया बचा नहीं करने को लगन से ! थोड़ा सा फासला नहीं ख़तम हुआ ताउम्र ना हम बढ़े आगे न ही चला गया उनसे ! ● दीपक शर्मा 'सार्थक'