ऐसा देश है मेरा भाग-4
दुनियां के बाकी जितने धर्म हैं वो एक पैगंबर और एक किताब के आधार पर ही अपने धर्म की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं जैसे जैसे पैगंबर ईसामसीह और बाइबिल, जैसे पैगंबर मोहम्मद और कुरान, लेकिन सनातनी परम्परा में ये सम्भव नहीं। हालांकि कुछ मूर्ख ऐसा ही साबित करने पर अमादा हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में जितने सारे दार्शनिक विचारों का उद्भव हुआ, उसका एक चौथाई भी विश्व के किसी और हिस्से में नहीं हुआ। यदि कोरी कल्पनाओं पर ना भी जाए तब भी ये मानना पड़ेगा कि समय समय पर भारतीय उपमहाद्वीप में कभी चार्वाक कभी जैन कभी बौद्ध तो कभी वेदांत दर्शन ने उस समय के शासकों और आम जनमानस को प्रभावित किया, और ये मुख्य धर्म बनकर उभरे।इन तीन हजार सालों में जितने दार्शनिक विचार यहां पनपे ये अपने आप में अनूठी बात है। आज हम हिन्दू धर्म को जिस रूप में देखते और समझते हैं..ये शुरुआत से ऐसा नहीं रहा है।
हम अपने रोजमर्रा के कामों में कुछ इस तरह उलझे कि दार्शनिक प्रवृत्ति के पतन होता चला गया। और हम अपने अपार दर्शन को भूल कर आधुनिक संकीर्ण पूजा पद्धति को ही अपना सब कुछ समझ बैठे।
एक समय ऐसा भी था जब वैदिक विचारो का बोलबाला था।वेद और उनसे निकले उपनिषद ही सब कुछ थे। लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि तब लेखन शैली का विकास नहीं हुआ था। इसलिए गुरु शिष्य परम्परा के तहत इनको कंठस्थ कराकर आगे की पीढ़ी तक पहुंचाया गया।इसलिए वैदिक श्लोकों को श्रुतियां भी कहा गया। वो ऐसा समय था जब ब्राह्मण श्रेष्ठ थे क्योंकि उनको ही संस्कृत आती थी और वही वेदों के ज्ञाता थे।
फिर चार्वाक दर्शन का समय आया। घोर दिखावा और कर्मकांडों के बीच एक ऐसे अनीश्वरवादी दर्शन का जन्म हुआ हो एकदम भौतिकवादी था। इतना भौतिकवादी की वो पांच तत्वों की जगह केवल चार तत्व ( अग्नि जल धरती वायु) को ही मानते थे। 'आकाश' को उन्होंने नकार दिया क्योंकि वो अपनी इंद्रियों द्वारा उसका अनुभव नहीं कर सकते थे। चार्वाकों ने वेदों का खंडन किया। और जो इंद्रियजन्य सत्य था उसे ही स्वीकारा। इस दर्शन के प्रणेता देवगुरु ब्रहस्पति हैं। इसको लेकर ऐसी कहानी है कि दैत्यों द्वारा बार बार देवताओं से युद्ध करने से परेशान होकर ब्रहस्पति ने चार्वाक जैसे सुखवादी दर्शन की स्थापना की। उनका मानना था कि उससे दानव इंद्रियजन्य सुख और भोग-विलास में संलिप्त होकर शक्तिहीन हो जाएंगे और देवताओं से युद्ध करने योग्य नहीं रह जाएंगे। चार्वाक को लेकर कहा भी जाता है, "ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्" अर्थात घी पियो चाहे कर्ज लेकर ही क्यूँ ना पीना पड़े। लेकिन सच ये है कि चार्वाक दर्शन मात्र इतना भर नहीं है। इसके बाद के दर्शन इससे इतना डर गए कि इससे जुड़ा सारा साहित्य नष्ट कर दिया गया। आज भी कुछ आधुनिक वेदांती कम्युनिस्टो को चार्वाक कह कर ही संबोधित करते हैं।
इससे बाद जैन और बौद्ध दर्शन का समय आता है। कुछ लोगों का मत है कि ये दोनों दर्शन भी ब्राह्मणवाद और वैदिक विचारों के विरुद्ध एक क्रांति थी। इस दोनों धर्मों के प्रवर्तक गौतमबुद्ध और महावीर दोनों क्षत्रीय राजघराने से थे।और ये बात मुझे सच भी लगती है क्योंकि राजकीय क्रियाकलापों में ब्राह्मणवादी ताकतों से परेशान होकर कई राजाओं ने इन दोनों धर्मों में से किसी एक को अपनाया।
जैन धर्म के बारे में मैंने जितना पढ़ा है ये मुझे बेहद यथार्थवादी और वैज्ञानिक धर्म लगता है। उनके चेतन और जड़वादी सिद्धांत और जड़ में पदगुल और अणु के विचार दुनियां में और किसी भी दर्शन में दूर दूर तक नहीं दिखते। हां इतना जरूर है इसपर 'सांख्य दर्शन' का कुछ प्रभाव जरूर देखने को मिलता है। जैन दर्शन कितना प्रभावशाली है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अरस्तू को विज्ञान का पिता कहा जाता है और अरस्तू के दर्शन में जैन दर्शन की साफ झलक देखने को मिलती है।
शासकों में चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म मे ही दीक्षा ली और इसे ही अपनाया। लेकिन जैन दर्शन अति अहिंसात्मक होने के कारण पतन का शिकार हो गया। किसानो को अपनी फ़सल को कीटों और जानवरों से रक्षा के लिए हिंसा करनी ही पड़ती है।इसलिए वो इस धर्म को अपना नहीं पाए। इसलिए आज भी ये बस व्यापारी वर्ग का ही धर्म बनकर रह गया।लेकिन कुछ आलोचक ऐसाभी बोलते हैं कि.." ये जो रेशम का कपड़ा बेचते है वो न जाने कितने कीड़ों को मार कर बनाया जाता है।" कुछ मिलाकर गुड़ खाओ और गुलगुले से परहेज वाला हाल है।
बौद्ध दर्शन भी अनीश्वरवादी दर्शन है। एक तरीके से ब्राह्मणवाद का विरोध। और इसका सबसे आसान तरीका था आम जनमानस के बीच अपने धर्म का उनकी भाषा, यानी पाली और प्राकृत भाषा में प्रचार करना। संस्कृत आमलोगो की भाषा नहीं थी। वो केवल प्रबुद्ध ब्राह्मण ही जानते थे।इसलिए आमजनों को बुद्ध ज्यादा समझ में आए। और देखते ही देखते ये धर्म भारत सहित लगभग पूरे एशिया में पहुच गया। लोगों को कर्मकांडी वैदिक रिवाजों की अपेक्षा बुद्ध का 'मध्य मार्ग' ज्यादा समझ में आया।लेकिन इतना जरूर है कि गौतमबुद्ध ने भी सबसे पहले 'आलार कालाम लिंगो' द्वारा सांख्य दर्शन की शिक्षा प्राप्त की थी। इन्हीं के पास छह वर्षो तक रुक कर गौतमबुद्ध ने सांख्य-मार्ग तथा समाधि-मार्ग का उचित अध्ययन किया और इनपर दक्षता और प्रवीणता हासिल की। अतः ये कहना की बुद्ध पर सांख्य दर्शन का प्रभाव नहीं था..तो ये गलत होगा।लेकिन बुद्ध की खास बात यही है कि उन्होंने समकालीन दार्शनिकों की तरह अपने शिष्यों के बीच बैठ कर दर्शन के नाम पर कोरी गप्प करने के स्थान पर लोगों के बीच जाकर उनकी समस्याओं का व्यवहारिक समाधान दिया। इसीलिए वो मात्र एक दार्शनिक भर नहीं होकर 'भगवान' हो गए।
एक हजार ईस्वी पूर्व से लेकर छह सौ ईस्वी तक यही सब दार्शनिक घटनायें चल रहीं थी।अशोक के बाद से ही बौद्ध धर्म सशक्त रूप से पूरे भारत में अपने पैर पसार चुका था,कि तभी 'आदि शंकराचार्य' का उद्भव होता है। शंकराचार्य से थोड़ा पहले वेदांत दर्शन कुमारिल भट्ट और उनके समकालीन दार्शनिकों के माध्यम से पुनः स्फटित हो रहा था। ये वो दौर था जब चारों ओर बौद्ध दर्शन और बौद्ध दार्शनिकों का बोलबाला था।
वेदांत का शाब्दिक अर्थ होता है..जहां वेदों का अंत हो। और उपनिषद ही वेदों का अंतिम हिस्सा हैं। अतः कह सकते हैं कि वेदांत दर्शन उपनिषदों पर आधारित दर्शन है।इसमें भी सबसे श्रेष्ठ स्थान आदि शंकराचार्य के 'अद्वैत दर्शन' को दिया जाता है। उनके इस दर्शन ने उस समय के घोर अनीश्वरवादी जैन, बौद्ध और चार्वाकों के बीच ये बोलकर खलबली मचा दी कि जिस जगत और जड़ को तुम सत्य मान कर बैठे हो..वो सब मिथ्या है, केवल ब्रह्म ही सत्य है।
"ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवोब्रमैहव नापरह" ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है और जीव ही ब्रह्म है और कुछ नहीं है। इस कथन से ही पता चलता है कि उनके दर्शन को अद्वैत क्युं कहा जाता है। अद्वैत मतलब दो नहीं एक। यानी जो कुछ है वो ब्रह्म है और कुछ है ही नहीं। बाकी जो कुछ हमको प्रतीत होता है वो सब 'माया' के कारण है। और ये माया ब्रह्म के अधीन है। इस कथन को सिद्ध करने के लिए शंकराचार्य ने इतने अकाट्य तर्क दिए कि बड़े से बड़े बौध्दिश्ठो, जैनों और चार्वाकों के मुह पर ताले लग गए। सच तो ये भी है कि आजतक कोई ढंग से इस सिद्धांत की आलोचना नहीं कर पाया।
इस दर्शन को मैंने करीब 10 साल पहले पढ़ा था। और इतना प्रभावित हुआ कि अपने भतीजे का नाम ही 'अद्वैत' रख दिया था। इसको पढ़ने के बाद एक बार दिल किया कि शंकराचार्य को लेकर उनके अनुयायी जो कहानियां गढ़ते हैं,उसे सच मान लूँ। शंकराचार्य को लेकर उनके अनुयायी एक कहानी सुनाते हैं। जिसमें वो बताते हैं कि जब पूरे भारत में बौद्ध धर्म फैल गया और उस धर्म में समय के साथ तमाम विकृतियां आ गईं। इससे दुखी होकर कुमारिल भट्ट (जो कि पहले एक बौद्ध ही थे) ने बौद्ध धर्म को समाप्त कर वैदिक धर्म की स्थापना का बीड़ा उठाया। कहा जाता है कि उन्होंने इसके लिए भगवान शंकर की तपस्या कर उनसे इस कार्य के लिए मदद मांगी। इसी कार्य को पूर्ण करने के लिए स्वयं शिव के अंश ने शंकराचार्य के रूप में जन्म लिया।
इस बात में कितनी सच्चाई है ये नहीं पता। लेकिन ये जरूर है कि मात्र आठ वर्ष की अल्पायु में ही शंकराचार्य ने समस्त वेदों उपनिषदों का संपूर्ण अध्ययन कर लिया था। और ये कोई कोरी कल्पना मात्र है। समस्त आधुनिक विद्वान इस पर सहमत हैं। मात्र 32 वर्ष की आयु में ही इनकी मृत्यु हो गई। लेकिन इतने समय में ही उन्होंने लगभग पूरे भारत का भ्रमण करके, मंडन मिश्र और ऐसे ही तमाम बौद्धो और कर्मकांडियो को शास्त्रार्थ में पराजित किया। और इसी के साथ भारत में पुनः वैदिक धर्म की स्थापना की।
उनकी आलोचना में इतना जरूर है कि कुछ लोग उनपर प्रच्छन्न बौद्ध ( छुपा हुआ बौद्ध) होने का इल्ज़ाम लगाते हैं। उनपर आक्षेप है कि उन्होंने बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के 'शून्यवाद' के सिद्धांत का अनुशरण किया है। आलोचकों का कहना है कि जो नागार्जुन का "शून्य" है, वही शंकराचार्य का "ब्रह्म" है। लेकिन ये मुझे सत्य नहीं लगता नागार्जुन के शून्य और शंकराचार्य के ब्रह्म में जमीन आसमान का अन्तर है।बस इतना जरूर है कि शंकराचार्य के ब्रह्म के व्याख्या की शैली नागार्जुन से थोड़ा मेल खाती है। लेकिन सिद्धांत नितांत अलग हैं।
इन सब के बाद भी शंकराचार्य अनूठे हैं। वो 'ज्ञानमार्गी' हैं। उनका दर्शन अद्वैत है। लेकिन फिर भी वो गीता पर 'भाष्य' लिखते हैं। अब सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा संभव कैसे हुआ क्योंकि गीता पर 'सांख्य दर्शन' का प्रभाव है। और सांख्य दर्शन पूर्णतया 'द्वैत वादी' है। सांख्य में 'पुरुष और प्राकृति' दोनों को सत्य माना है। यहां तक एक जगह कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, "हे पार्थ! दर्शन में मैं सांख्य हूं। मुनियों में मैं कपिल हूं।(कपिल मुनि ही सांख्य दर्शन के प्रवर्तक हैं) तो आखिर एक 'अद्वैतवादी', द्वैतवाद से ओतप्रोत गीता पर अपना भाष्य कैसे लिख सकता है?
दूसरी बात गीता में भले ही कर्मयोग और ज्ञानयोग को महत्व दिया गया हो, पर अंततोगत्वा वो भक्तियोग प्रधान ग्रंथ है।कृष्ण कहते भी हैं-
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।"
अर्थात सम्पूर्ण "धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर"।इससे सीधे-सीधे "भक्ति मार्ग" के महत्व को गीता में समझा जा सकता है।और शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन 'ज्ञानमार्गी' हैं। यहां तक वो ज्ञान प्राप्त की अवस्था को की मोक्ष मानते हैं। वो कहते भी हैं कि जैसे ही ब्रह्म का ज्ञान होता है वैसे ही माया जनित इस मिथ्या जगत का आवरण हट जाता है। यही मोक्ष है, ऐसे में वो आखिर गीता पर भाष्य कैसे लिख देते हैं? क्योंकि गीता इसके विपरीत मोक्ष की बात करती है।
यहीं पर शंकराचार्य के दर्शन की परिपक्वता देखने को मिलती है। उन्होंने कर्म, ज्ञान और भक्ति योग का बहुत की सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है। आज भी गीता पर लिखे उनके भाष्य को ही सबसे प्रामाणिक माना जाता है,और यही उनको शंकराचार्य बनाता है।
शंकराचार्य के बाद रामानुज का 'विशिष्टाद्वैत' से होते हुए मध्वाचार्य द्वारा पुनः द्वैतवाद पर वेदांत दर्शन लौट आता है।
इसीके साथ धीरे-धीरे दर्शन के 'ज्ञानमार्ग' में शिथिलता और 'भक्ति मार्ग' की प्रगाढ़ता आने लगती है। हद तो तब हो जाती है जब रामानुज बैकुंठ से धरती पर आए रथ का वर्णन करने लग जाते हैं। यही परम्परा शताब्दियों बाद चैतन्य महाप्रभु तक आती है। तभी से मंदिरों में भजन कीर्तन गायन नृत्य आदि की परंपरा शुरू हो जाती है। इसका आधुनिक विकृत रूप हम डी जे पर फिल्मी गानों पर बनाए गए भक्ति गीतों पर भंग और दारु के नशे में लोगों को थिरकते देखते हैं। चैतन्य महाप्रभु के समय भागवत भक्ति और प्रेम रूपी गंगा, गंगोत्री के समान पवित्र थी। आजके समय तक आते आते ये कानपुर की गंगा में बदल गई।
भक्ति मार्ग के नाम पर पनपी धर्मान्धता, दिन पर दिन प्रबल होता जा रही है। ज्ञान की बात करते ही लोग लाठी लेकर दौड़ा लेते हैं। उनकी नज़र में हिंदू धर्म बस यही है। और आलम ये है कि अब 'द्वैत वाद' जगह "त्रेतवाद" ने ले लिया है।
त्रेतवाद मेरे द्वारा खोजा गया शब्द है। अद्वैत में पहले केवल ब्रह्म था और कुछ नहीं। द्वैत में ब्रह्म और जीव (मनुष्य) दो हो गए। लेकिन अब त्रेतवाद में ये तीन हो गए हैं..पहला ब्रह्म दूसरे हम मनुष्य और तीसरे मंदिरों और घाटों पर बैठे दलाल जिनको मैं पोंगा पंडित कह कर पुकारता हूं। ये बीच के दलाल अब ब्रह्म और मनुष्य के बीच बहुत ही अहम रोल अदा कर रहे हैं। इन मठाधीशों ने मंदिरों पर कब्जा कर रखा है। दिन पर दिन इनके मायावी कर्मकांड बढ़ते ही जा रहे हैं। "ब्रह्म समाज" के संस्थापक दयानन्द सरस्वती ने बीच मे एक प्रयास जरूर किया, इस कर्मकांड और आडंबर के जाल को तोड़ने की। लेकिन इन पोंगा पण्डितों के कारण उनको सफ़लता नहीं मिली। हर दशक में नए नए भगवान लॉन्च किए जा रहे हैं। भगवाधारी आडंबर अपने चरम पर है।कई ढोंगी बाबा दो पुस्तकों को पढ़कर अपने अनुयायियों के सामने भगवान बनने पर आमादा है।
अंत में शंकराचार्य का एक उदाहरण देकर अपनी बात खत्म करूंगा। शंकराचार्य ने जब कहा कि माया के वशीभूत होकर जीव, ब्रह्म से खुद को अलग समझने लगता है। और ये मिथ्या जगत उसे स्वप्न की स्थिति की तरह सच लगने लगता है। इसपर उनके आलोचकों ने प्रश्न किया कि "क्या माया इतनी प्रबल है कि वो ब्रह्म को भी ढक लेती है?"
शंकराचार्य इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि माया बादल के समान है और ब्रह्म सूर्य की तरह है। अब देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि बादल ने सूर्य को ढक लिया है। पर सच ये नहीं है। सच तो ये है कि बादलों ने जगत को ढक लिया है। और हम माया के इस खेल को समझ नहीं पाते। ब्रह्म तो निर्लिप्त है..नेति-नेति है।
वैसे ही हम आज माया को समझ नहीं पा रहे हैं। अब तो इस मिथ्या जगत के उदाहरण देना भी ज्यादा कठिन नहीं है। आखें खोलते ही आप मोबाइल देखते हैं..जो मिथ्या है। टीवी मिथ्या है। Netflix Amezon prime मिथ्या है। लोग ऑनलाइन गेम में इतना व्यस्त हैं कि उनको आभासी दुनिया और वास्तविक दुनिया मे कोई अन्तर ही नहीं पता चल रहा है। अभी तो 3D यानी थ्री डायमेंशन का दौर चल रहा है। अभी आगे 4 , 5,6 ना जाने कितने डायमेंशन आयेंगे। हर झूठी चीज उतनी ही वास्तविक प्रतीत होने लगेगी। क्रत्रिम वाद अपने चरम पर होगा। ऐसे में हमे हमारे दर्शन ही बचा सकते हैं। अतः अब उनको बचाने का समय है। झूठे आडंबर और पाखंड से बचने का समय है
©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
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