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Showing posts from October, 2020

बेहाल मिर्ज़ापुर

और वही हुआ जो लगभग 90 प्रतिशत वेब सिरीज़ में होता है। पहला पार्ट तो जबरदस्त बनाते हैं लेकिन दूसरे सीज़न में सब गोबर कर देते हैं।'मिर्ज़ापुर' वेब सिरीज़ का भी वही हाल हुआ।  वैसे तो वेब सिरीज़ का चलन दुनियां के अन्य हिस्सों में बहुत ज़्यादा फैला है लेकिन अगर कहा जाए कि भारत जैसे देश में इसकी शुरुवात 'मिर्ज़ापुर' हुई है, तो ये गलत नहीं होगा। जितनी लोकप्रियता 'मिर्ज़ापुर' की है शायद ही किसी वेब सिरीज़ की हुई हो। हमारे देश में जहाँ लोग मुश्किल से अपना मोबाइल ही रीचार्ज करा पाते हैं, वहां पर एक वेब सिरीज़ को देखने के लिए अगर लोग 'ऐमेज़ॉन प्राइम' का रीचार्ज करा रहे हैं तो ये एक बड़ी बात है। यही बात इस वेब सिरीज़ को अन्य सिरीज़ से अलग कर देती है। 'मिर्ज़ापुर' का पहला सीज़न हर आयु वर्ग के व्यक्ति को पसंद आया। इसकी कहानी का कसाव...इसके हर करेक्टर की डायलॉग डिलीवरी, अपने आप में अनूठी है। जैसे 'शोले' फिल्म का हर करेक्टर उसी फिल्मी नाम और डायलॉग से अमर हैं। वैसे ही मिर्ज़ापुर के करेक्टर वो चाहे 'गुड्डू पंडित' हो 'कालीन भैया' या 'मुन्ना भैया' हो...

प्रेम की पाठशाला

वो जो मन के ठोस हैं संवेदनाओ के शुष्क हैं भावना हीन पाषाण हैं संवेगो से जड़ हैं करुणाहीन, स्थिर हैं वो प्रेम को क्या समझेंगे! प्रेम तो सारे तटबंधो का टूट कर ढहना है ! पाषाणो का सीना चीर के उन्मुक्त नदी सा बहना है ! जलती लौ में मोम सा पिघल कर, दर्द को सहना है ! संवेगो का आभूषण है, आवेगों का गहना है ! इससे इतर  जो शुष्क, ठोस, पाषाण हैं और अहंकार में चूर हैं  ! वो दया के पात्र हैं प्रेम से कोसो दूर हैं !            ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

तुम हो पर नहीं हो!

तुम पानी हो  फ्रिज वाला ! यानी मुर्दे की तरह 'ठंडे' हो अंग्रेज़ी वाले 'कूल' हो  'चिल्ड' हो बस 'शीतल' नहीं हो ! तुम मुस्कुराहट हो सेल्फ़ी वाली ! यानी दिखावटी हो कृतिम हो होठों पे आई, जबरदस्ती की हँसी हो बस प्रसन्नत नहीं हो ! इसका मतलब है कि तुम होते हुए भी नहीं हो ! तुम्हारा खोल तो वैसा ही है बस बिना आत्मा के हो !            ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

आप बन्दर हैं

कभी खुद को दूर से देखें, खुद से अलग होकर ! अपने मजहब से अलग होकर अपनी जाति से अलग होकर अपनी नस्ल से अलग होकर अपनी परम्पराओ से अलग होकर ऐसा होते ही आखों से पर्दा हट जायेगा ! आप जंजीरों क़ैद हैं ये दिख जाएगा ! तब आप समझेंगे कि  ये समाज मदारी है  और आप बन्दर हैं ! समाज के कायदे-कानून बाहर हैं और आप पिंजरे के अंदर हैं !           ● दीपक शर्मा 'सार्थक'

बलात्कार

एक ने हवस मिटाई दूसरे ने शरीर नोचा तीसरे ने खेत में घसीटा  चौथे ने ज़बान काटी  ये सिलसिला यहीं नहीं रुका ! फिर पाँचवे ने रिपोर्ट नहीं लिखी छठे ने सबूत मिटाए सातवें ने जबरदस्ती जलाया आठवें ने घर वालों को धमकाया  नवे ने इसको कवर न करके  केवल सुशांत की मौत से टी आर पी कमाई ! दसवां बोला ! उनके राज्य में भी तो रेप हुआ, वहाँ नहीं जाते! ग्यारहवें  ने गरदन उचकाई और कहा, "सब राजनीति है, हमसे क्या मतलब !" और इस तरह बारी-बारी से सबने बलात्कार किया !              ●दीपक शर्मा 'सार्थक'

सोशल मायाजाल

जब मैथलीशरण गुप्त जी ने "नर हो न निराश करो मन को..कुछ काम करो..कुछ काम करो !" कविता लिखी थी तब उनका ये कतई मतलब नहीं रहा होगा कि लोग दिन रात बस मोबाइल पे काम करते रहें। यहां तक अपने नरसैगिक नित्यकर्म के समय भी लोग मोबाइल लेके काम करते रहेंगे। अगर इसका ज़रा सा भी अहसास उनको होता तो "कुछ काम करो..कुछ काम करो !" जैसी बात कभी नहीं करते। मोबाइल वाला मनोरोग, यहां तक लोगो के दिमाग में घुस गया है कि लोग अपने मोबाइल से एक क्षण के लिए भी दूर नहीं हो पा रहे हैं। खासकर किशोरावस्था के बच्चे जिनके अमीर माँ बाप उनके पैदा होते ही एक मोबाइल हाथ में पकड़ा देते हैं। मेरी समझ में नहीं आता की आखिर 24 घन्टे कौन सा काम मोबाइल पे करते हैं।इससे भी बुरी बात ये है कि समाज ने इस बात को इस कदर स्वीकार कर लिया है कि बिना मोबाइल वाले की व्यक्ति की गिनती असमान्य लोगों में होने लगी है। उदाहरण के लिए- मान लीजिए कोई व्यक्ति कहीं पब्लिक प्लेस पे बैठा हो! एकदम शान्त..बिना हाथ में मोबाइल लिए, बस बैठा हो, कुछ कर न रहा हो।ऐसे में वहां से जो लोग गुजरेंगे वो उसको ध्यान से देखेंगे। आखिर ये कुछ कर क्यूँ नहीं रह...