गुनहग़ार ही सही !
अगर है ज़ुर्म मेरा बेहिचक बेबाक बोलना
मत दो ये मशवरे मैं गुनहग़ार ही सही
चुभता है तुम्हें जो मेरा आज़ाद नज़रिया
इस बात का शिकवा है तो बेज़ार ही सही
अपने परों को काट के ख्वाबों को बेंच दूँ
ऐसे सुकून से मैं बेक़रार ही सही
मिलना तो मोहोब्बत से वो पहले की ही तरह
इस दर्ज़ा बेरुखी से इंतज़ार ही सही
मुझको कहां मंज़ूर ये ख़ैतार की चाहत
ता उम्र मोहोब्बत का तलबग़ार ही सही
ईमान ख़ुद्दारी के बदले जीत मिले तो
इस तरह जीतने से मेरी हार ही सही
किस काम की जन्नत जहां बसते हैं मतलबी
मेरे लिए तो बस यही मजधार ही सही
मेरे हैं रास्ते अलग,अलग हैं मंज़िलें मेरी
दुनियां की नज़र में भले बेकार ही सही
© दीपक शर्मा 'सार्थक'
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