सुनने वाला कोई नहीं !

कहने को बेताब हैं दुनियां
सुनने वाला कोई नहीं !
उलझा दें ज़िन्दगी का ताना
बुनने वाला कोई नहीं !

अपनों के ही बीच खो गए
ढूढने वाला कोई नहीं !
बिखर गए ज़िन्दगी के पन्ने
चुनने वाला कोई नहीं !

सारे हैं टूटने को आतुर
जुड़ने वाला कोई नहीं !
प्यार भरी आवाज़ को सुनकर
मुड़ने वाला कोई नहीं !

जमें हैं नेता देश के ऊपर
उखड़ने वाला कोई नहीं !
घर पर बैठ के भाषण दें सब
भिड़ने वाला कोई नहीं !

चले बुराई सीधे रस्ते
अड़ने वाला कोई नहीं !
ग़ैरों की ख़ातिर मुश्किल में
पड़ने वाला कोई नहीं !

होता है अन्याय हर तरफ
लड़ने वाला कोई नहीं !
बिगड़ रहा माहौल देश का
गढ़ने वाला कोई नहीं !

कहने को बेताब है दुनियां
सुनने वाला कोई नहीं !

        © दीपक शर्मा 'सार्थक'

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