यथा जनता तथा नेता !

और आज मुझे दया आ गई। वो भी नेताओ पर ! जिसे भी देखो बिचारे नेताओ के पीछे पड़ा है। ये जो परजीवी टाइप के बुद्धिजीवी लोग हैं इनकी बौद्धिक हवस बिचारे नेताओं की बखिया उधेड़ कर ही शान्त होती है। नेता न होता तो ये परजीवी भी न होते।
हाल तक मुझे भी नेताओं से थोक के भाव में शिकायतें रही हैं पर अब मेरे मन में उनके लिए करुणा पैदा हो रही है। और इसी के साथ सारी शिकायतेंं नेताओं की जगह 'जनता' से हो गई है।
चूँकि मुझे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है और न ही वोट मागते समय किसी के सामने दांत ही चियारना है अत: मुझे इस नामुराद जनता का कोई डर भी नहीं है।
यदि निर्भीक होकर कहूँ तो इस देश की जनता की आर्थिक स्थित तो 'दो कौड़ी' की है ही वही साथ में उसकी मानसिक स्थित भी दो कौड़ी से ज्यादा नहीं है।
ज्यादातर तो ये सुस्त और मरिल्ली जनता निष्क्रिय ही रहती है पर जैसे ही चुनाव का सीजन आता है वैसे ही ये मरिल्ली जनता, 'वोटर' में तब्दील हो जाती हैं।ऐसा होते ही इसके हाव भाव ही बदल जाते हैं।
ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री के चुनाव तक इन वोटरों की चांदी हो जाती है। ये वोटर,चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों का चुनाव प्रचार के दौरान जितना शोषण कर सकते हैं..ये करते हैं। छोटे से ग्रामसभा के चुनाव में भी लड़ने वालों प्रत्याशियों का दसयो लाख रुपिए खर्च हो जाता है। ग्रामीण भारत में एक कहावत है -
"कच्ची दारू कच्चा वोट
पक्की दारू पक्का वोट
मुरगा दारू खुल्ला वोट "
ये सौ सौ रुपिए में अपना वोट बेचने वाले लोग चुनाव के समय प्रत्याशी को जितना नोंच घसीट सकते हैं,नोंचते घसीटते हैं।
कुछ ऐसी भी बीमार मांसिकता के वोटर हैं जो जाति,धर्म,संप्रदाय के नाम पर योग्यता को दरकिनार कर किसी भी विकृत सोच के व्यक्ति को चुनाव जिता देते हैं।
ये सर्वविदित है कि जो व्यक्ति करोडो रुपिए खर्च करके चुनाव जीता है वो तो पैसा कमाएगा ही ! इसमें बेचारे नेता की क्या ग़लती है। और फिर जब नेता पांच साल तक इनके दरवाज़े पर झांक के नहीं देखेगा तो फिर यही मरिल्ली जनता रांड की तरह रो रो कर चिल्लाएगी कि अमुक नेता ने उनके विकास के लिए कुछ नहीं किया। नेता कुछ करे ही क्यों? क्योंकि उसको पता है कि चुनाव के समय,पैसे के दम पर..जाति धर्म के नाम पर ही वोट मिलेगा। तो बिना मतलब विकास का पचड़ा क्या पालना!
नीतिशास्त्र में कहा गया है- "यथा राजा..तथा प्रजा"
अर्थात जैसा राजा होगा वैसी ही प्रजा होगी।ये कहावत उस समय की है जब देश में लोकतंत्र की जगह राजतंत्र था। तब राजा जिस मांसिकता का होता था,उसकी प्रजा भी उसी मांसिकता की हो जाती थी। लेकिन लोकतंत्र में ये कहावत प्रासंगिक नहीं रही। अब इसका उल्टा कर देना चाहिए -"यथा जनता तथा नेता।"
लोकतंत्र में जिस मांसिकता की जनता होगी, उसी मांसिकता का नेता चुनेगी।
व्यक्तिगत स्वार्थ, वंशवाद,जातिवाद,धर्मवाद  ये इस देश की जनता के रगों में खून बनकर दौड़ रहा है। तो इसमें नेताओ का दोष?वो तो सच में इसी जनता की नामुराद सोच का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।

                © दीपक शर्मा 'सार्थक'

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