कहां बचने का चारा है !
दरख़्तों को है जो काटे
उसे मालूम भी है क्या ?
किसी ने प्यार से उसको
कभी सींचा सवांरा है !
ज़माने भर की दौलत से
नहीं मिटती हवस अक्सर
कोई दो जून की रोटी
में कर लेता गुज़ारा है !
बड़ी ही बेतुकी होती हैं
मौतें देश में मेरे
किसी को बाढ़ ले डूबी
कोई सूखे का मारा है !
किसी का घर जले तो
हाथ सेंके मतलबी दुनियां
दुआ मागें अगर कोई
कहीं टूटा सितारा है !
हक़ीकत से हैं बेपरवाह
झुकी गर्दन मोबाइल में
जिधर भी देखिए हर ओर
बस ये ही नज़ारा है !
धर्म का नाम ले करके
सियासत जब लगे होने
जलेगा मुल्क फिर एक दिन
कहां बचने का चारा है !
© दीपक शर्मा 'सार्थक'
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