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किस काम का सावन

रह गया है किस काम का सावन  है प्यारे बस नाम का सावन नज़र नहीं आते पेड़ों पर पहले जैसे झूले व्यस्त हैं सब दुनियादारी में रिश्ते नाते भूले बने विदूषक फिरते हैं अब इंस्टा पर ये नचनिये  कजरी और मल्हार के बदले रैप में गाली सुनिए हरियाली और तीज है गायब किसको याद करेगा सावन ! रह गया है ..... पुरवाई में ज़हर घुला है धुंधला हुआ नज़ारा  नहीं भीगता बारिश में अब बच्चा कोई बेचारा गांवों में चौपाल न लगती दूषित हुई फुहारें द्वेष लिए फिरते हृदयों में कैसे कोई उबारे बंजर अंतःकरण को आखिर कब तक यूं सींचेगा सावन ! रह गया है ....             © दीपक शर्मा ’सार्थक’

मै भूल जाता हूं

मैं भूल जाता हूं.. चेहरे और उनके नाम  उनकी अवसरवादी सधी सपाट बातें यहां तक कि पहचान भी ! मुझे याद रह जाते हैं, कोई बेमकसद सा अहसास  हल्की सी छुवन कुछ कोरी कल्पनाएं यहां तक कुछ अधूरे अरमान भी  हां ! ये सच है कि मै भूल जाता हूं .. जो साथ हैं उन्हें या सच कहूं  जो बस दावा करते हैं  साथ होने का, दिखावा करते हैं अपना होने का, और वो बाजारू जुबान भी !! मुझे याद रह जाते हैं कुछ बेसबब से किस्से,  बिना वजह वाले रिश्ते, वो जो दिल को छू लें भले हो कोई शख्स अंजान भी !!!          © दीपक शर्मा ’सार्थक’

क्या जानोगे !

और बताओ क्या जानोगे  पास तो आओ क्या जानोगे ! कहते हो सब जान गए हो बस मगरुर हो, क्या जानोगे ! मैं ही जब अंजान हूं खुद से फिर तुम मुझको क्या जानोगे ! चेहरा देख के दर्द न जाना कह भी दें तो क्या जानोगे ! जब सारा जग जान गया है तब जाना तो क्या जानोगे ! दर्द में जो खुल के हंसता हो उसके दर्द को क्या जानोगे  जान है जबतक जान लो मुझको जान गई तो क्या जानोगे !              © दीपक शर्मा ’सार्थक’           

तब देखेंगे

शोख़ अदाएं तब देखेंगे प्यार दिखाए तब देखेंगे बहक गया हूं नशे में यारों कोई उठाए तब देखेंगे ! सुनता हूं वो बहुत है अच्छा पास तो आए तब देखेंगे ! ख़ता भी मेरी, रूठा भी मैं कोई मनाए तब देखेंगे ! चोर घुसे हैं घर में, कोई  शोर मचाए तब दिखेंगे! वो देखो वो डूब रहा है डूब ही जाए तब देखेंगे ! आग लगी है शहर में अपने कोई बुझाए तब देखेंगे ! घड़ा पाप का अभी है खाली फूट ही जाए तब देखेंगे ! रिश्ते में दरार है आई टूट ही जाए तब देखेंगे !            © दीपक शर्मा ’सार्थक’

वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक

वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक ! देश पे हमला करने वाले  आतंकी से है हमदर्दी हमले की निंदा यदि करते सतही और लगे है फर्जी दही भिगो के जूते मारूं मन करता है ऑटोमैटिक वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक !! चाटुकार चमचे और चिंटू चाट रहे तलवे आतंकी थू है ऐसी राजनीति पर कायर शठ करते नौटंकी धर्म है इनका ’शरीयत’ लेकिन बनते हैं ये डेमोक्रेटिक  वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक !! राष्ट्र से ऊपर धर्म है जिनका उनका नहीं भरोसा करना जाहिल कट्टर और हिंसक से सदा बना के दूरी रहना गाली नहीं इन्हें दो ’गोली’ मांग रहे एंटीबायोटिक  वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक!!         © दीपक शर्मा ’सार्थक’

प्रेम का प्रोटोकॉल

प्रेम से बढ़कर है दुनियां में  प्रेम का प्रोटोकॉल निभाना ! रही तड़प न पहले जैसी मिलने और बिछड़ने में अब महज़ दिखावा, लफ़्फ़ेबाजी लगे हैं इंप्रेस करने में अब नहीं समर्पण इक दूजे प्रति  लगता है जंजाल पुराना प्रेम से बढ़कर है दुनियां में प्रेम का प्रोटोकॉल निभाना ! (१) अहम भरा है हृदय में जबतक प्रेम कहां रह पाएगा वहम का पर्दा आंखों पे यदि सत्य कहां कह पाएगा लगी प्रतिस्पर्धा आपस में केवल अपना हाल बताना प्रेम से बढ़कर है दुनियां में प्रेम का प्रोटोकॉल निभाना ! (२) अधिकारों के लिए हैं लड़ते प्रेम का लेकर नाम यहां पर स्वार्थ के खातिर प्रेम को अक्सर करते हैं बदनाम यहां पर हृदय अस्थिर खुद का जबकि चाह रहे हड़ताल कराना  प्रेम से बढ़कर है दुनियां में प्रेम का प्रोटोकॉल निभाना ! (३)                    © दीपक शर्मा ’सार्थक’

कलाम ए जावेदा

आज से दो दिन पहले आदरणीया निशा सिंह नवल जी की ग़ज़ल संग्रह ( कलाम-ए-जावेदा) का विमोचन हुआ। मेरा सौभाग्य रहा कि उसी दिन मुझे ये पढ़ने को भी प्राप्त हो गई। विश्वास मानिए एक बार पढ़ना शुरू किया जब तक इसकी सारी ग़ज़लें पढ़ नहीं ली, मुझसे रहा नहीं गया। इस पुस्तक की हर एक ग़ज़ल अपने आप में एक पाठ्यक्रम की तरह है। जिसे आप अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उतार सकते हैं..कुछ सीख सकते हैं.. ख़ुशी में गुनगुना सकते हैं..द्रवित होने पर इन्हें पढ़कर करुणामय हो सकते हैं।  हृदय से उत्पन्न होने वाले सभी भावों को भावविभोर कर देने वाली एक-एक ग़ज़ल, अपने आप में अनूठी और समाज में व्याप्त सभी विसंगतियों पर कटाक्ष करती नजर आती है। सिक्को में चंद सारा ये संसार बिक गया ईमान बिक गया कहीं किरदार बिक गया मोहताज़ कीमतों की थी हर शय जहान में क़ीमत मिली जो ठीक तो खुद्दार बिक गया सच कहने सुनने का कोई जरिया नहीं बचा चैनल के साथ–साथ ही अखबार बिक गया  मुझे जो नजर आता है निशा जी की हर एक ग़ज़ल का शिल्प बहुत ही सुंदर तो है ही उसके साथ साथ वो बहुत ही सरल भी है।कोई कुछ भी बोले सरलता से बड़ी खूबसूरती कोई हो ही नहीं सकती। जटिल ...