कलाम ए जावेदा

आज से दो दिन पहले आदरणीया निशा सिंह नवल जी की ग़ज़ल संग्रह ( कलाम-ए-जावेदा) का विमोचन हुआ।
मेरा सौभाग्य रहा कि उसी दिन मुझे ये पढ़ने को भी प्राप्त हो गई। विश्वास मानिए एक बार पढ़ना शुरू किया जब तक इसकी सारी ग़ज़लें पढ़ नहीं ली, मुझसे रहा नहीं गया।
इस पुस्तक की हर एक ग़ज़ल अपने आप में एक पाठ्यक्रम की तरह है। जिसे आप अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उतार सकते हैं..कुछ सीख सकते हैं.. ख़ुशी में गुनगुना सकते हैं..द्रवित होने पर इन्हें पढ़कर करुणामय हो सकते हैं। 
हृदय से उत्पन्न होने वाले सभी भावों को भावविभोर कर देने वाली एक-एक ग़ज़ल, अपने आप में अनूठी और समाज में व्याप्त सभी विसंगतियों पर कटाक्ष करती नजर आती है।
सिक्को में चंद सारा ये संसार बिक गया
ईमान बिक गया कहीं किरदार बिक गया

मोहताज़ कीमतों की थी हर शय जहान में
क़ीमत मिली जो ठीक तो खुद्दार बिक गया

सच कहने सुनने का कोई जरिया नहीं बचा
चैनल के साथ–साथ ही अखबार बिक गया 

मुझे जो नजर आता है निशा जी की हर एक ग़ज़ल का शिल्प बहुत ही सुंदर तो है ही उसके साथ साथ वो बहुत ही सरल भी है।कोई कुछ भी बोले सरलता से बड़ी खूबसूरती कोई हो ही नहीं सकती। जटिल होना तो एक समस्या है। निशा जी अपनी हर ग़ज़ल में इसी जटिलता से बची हैं। उन्होंने आम बोलचाल वाली भाषा में गहरे भावों को व्यक्त किया है। उन्होंने तथाकथित बुद्धिजीवियों की तरह क्लिष्ट शब्दों (अल्फाज़) से परहेज किया है और शब्दों की जगह भावों को महत्व दिया है।

चार छे फोन सबके घर में हैं
अपनो से बात पर नहीं होती !

मोल हीरा का जौहरी जाने
पारखी हर नजर नहीं होती !

दुनियां जानती है बुद्ध ने क्लिष्ट संस्कृत के स्थान पर आम जनमानस की भाषा (पाली प्राकृत) में उपदेश दिए।जिसे लोग समझे और समाज को एक नई दिशा मिली।तुलसी भी आज हर घर में व्याप्त हैं क्योंकि उन्होंने आम बोलचाल में ’मानस’ की रचना की। इसीलिए सरलता ही साहित्य का सबसे बड़ा आभूषण है। ये बात निशा जी भली भांति समझती हैं। और यही उनकी हर रचना में नजर आता है।

ज़रूरत है यहां लोगों को नींदों से जगाने की
सुनहरे ख़्वाब आंखों में पिरोने की सजाने की !

यहां हर शख्स अपने आप में खोया हुआ सा है
ज़रा सी भी नहीं फुरसत उसे रिश्ते निभाने की !

खुलेंगे द्वार जन्नत के यहीं दहलीज़ के भीतर
रवायत हो शुरू घर के बुजुर्गों को हंसाने की !

अक्सर देखा है बहुत से ग़ज़लकार, ग़ज़ल में शेरों की संख्या बढ़ाने के चक्कर में या यूं कहें अपनी ग़ज़ल को मुकम्मल करने के फ़िराक़ में एक दो बेतरतीब से शेर जो बस तुकांत भर होते हैं, उनका प्रयोग अपनी ग़ज़ल में कर देते हैं इसका दुष्परिणाम ये निकलता है कि ग़ज़ल बोझिल हो जाती है। निशा जी की ग़ज़लों को ये दोष छूकर भी नहीं निकला है। हर ग़ज़ल में शेरों की ठीक ठाक संख्या होने के बावजूद हर शेर अपने आप में मुकम्मल और वजनदार है। हर शेर को पढ़कर स्वतः ही दिल से दाद निकलती है।
कुछ शेर ऐसे हैं जो आपको नर्म मुलायम घास पर नंगे पैर चलने जैसी गुदगुदाहट पैदा करते हैं वहीं कुछ ग़ज़ल के शेर तो ऐसे हैं जो आपको झझकोर कर रख देते हैं।

जिनके लिए थे फ़र्ज़ तेरी परवरिश के दिन
उनको ज़ईफ़ी में नहीं दो रोटियां मिली !

दानिश–वरी पे तेरी न कैसे सवाल हो 
जकड़ी रिवायतों से यहां बेटियां मिली !

ये ग़ज़लें निशा जी के बहुमुखी चिंतन और उनके हृदय में बसी समाज के प्रति करुणा को भी दर्शाती हैं। एक साहित्यकार के नाते वो आजकल के इस उद्विग्न समाज के लिए अपने उत्तरदायित्व को भी दर्शाती हैं।
ये उनका अमर कलाम, आम जनमानस भी एक दिन गुनगुनाएगा। आजकल की एक भागदौड़ वाली जिंदगी में ठहर कर लोग उनकी गजलों को सुनेंगे।
निशा जी की साहित्यिक यात्रा ऐसे ही निरंतर आगे बढ़ती रहे, ईश्वर से यही कामना है। इनको “कमाल– ए– जावेदा“ के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।

                                दीपक शर्मा ’सार्थक’
                                 मो –6394521525






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