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और इसे मैं लेकर रहूँगा

क्रूर अंगेजी शासन का वो दौर जिसमें बड़े से बड़ा नेता देश के नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की बात भी कानाफूसी की तरह करते थे। एक वो दौर जिसमें "स्वराज" भी भीख की तरह माँगा जा रहा था..बड़े-बड़े धुरंधर नेताओ के स्वराज मांगने का तरीका डिप्लोमेटिक हुआ करता था..वो मांग तो करते थे लेकिन इस तरह से की कहीं उनकी बात से अंग्रजी शासन बुरा न मान जाए! उस दौर में एक ऐसा नेता आया जिसने अपनी बुलंद आवाज से अंग्रेजों के कानो में शीशा पिघला कर भर दिया।उसने बोला, "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।" लेकिन उसकी बात यहीं खत्म नहीं हुई वो आगे बोलता है, "और उसे मैं लेकर रहूँगा।" बाल गंगाधर तिलक की इस बात ने करोड़ों युवा भारतीयों के हृदय में क्रांति के बीज़ बो दिए। "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है..और इसे मैं लेकर रहूँगा।" तिलक का ये नारा मगरूर अंग्रजी शासन के मस्तक पर एक जूते की तरह पड़ा।  "और इसे मैं लेकर रहूँगा" इस वाक्य में एक हनक है..इसमें एक जिद है..इसमें एक गजब तरीके का आत्मविश्वास है। इसमें दांत निकालकर या खीसे निपोरकर या रिरियाकर या हाथ जोड़कर कुछ माँगा नही...

चिट्ठी

प्रिय, बेसिक शिक्षा सचिव जी ! माना आप बेसिक शिक्षा परिषद के बदलाव का सूत्रधार बनना चाहते हैं। ये भी माना कि निरंतर हो रहे नवाचार कि बदौलत, आप बेसिक शिक्षा परिषद की छवि बदलते के लिए संकल्पबद्ध हैं। इसके लिए आपको बधाई देने के साथ-साथ धरातल से जुड़े कुछ प्रश्नों या कह ली लिए समस्याओं से अवगत कराना चाहता हूं। आशा है आप इन समस्याओं का समाधान भी ढूढ़ निकालेंगे। (1) जैसा कि आपको ज्ञात है कि आम ग्रामीण जनमानस से लेकर विभाग के अधिकारियों और यहां तक अन्य विभाग के कर्मचारी इस पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं कि बेसिक के शिक्षक या तो अनुपस्थिति रहते हैं या समय से विद्यालय नहीं आते हैं। महोदय, इस तथ्य को मैं पूरी तरह नकार नहीं सकता। लेकिन क्या किसी ने कभी इस समस्या की तह तक जाकर, इसके कारण को समझने की कोशिश की है? या बस इस मनोवृत्ति का शिकार होकर कि 'शिक्षक लापरवाह और कर्तव्यनिष्ठ नहीं होते' संतुष्ट हो जाते हैं।  पूर्व में ऐसा रहा होगा मुझे नहीं पता लेकिन वर्तमान समय में जब इतनी खींचातानी और चेकिंग हो रही है। तो शायद ही कोई शिक्षक होगा जो रोज समय पर विद्यालय नहीं आना चाहता होगा। या इतने सारे लक्ष्य...

शाकाहार एक छलावा

शाकाहार पर लिखने से पहले एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ। बात उस समय की है जब अयोध्या पर त्रिशंकु का शासन था। वो सशरीर स्वर्गलोक जाने की जिद कर बैठा। जब कुलगुरु वसिष्ठ ने उसका इस पागलपन में साथ नहीं दिया तो इसका ठेका विश्वामित्र ने अपने कंधों पर ले लिया। आगे की कहानी सबको पता है कि कैसे इन्द्र ने उसको स्वर्गलोक पहुचने से पहले ही नीचे धकेल दिया और वो धरती आकाश के बीच फंस कर रह गया। लेकिन जो कथा मैं बताना चाहता हूँ वो इस घटना के बाद शुरू होती है। देवताओ के ऐसे दुर्व्यवहार से विश्वामित्र इतना क्रोधित हुए कि उन्होंने एक अलग सृष्टि बनाने की प्रतिज्ञा कर ली। ब्रह्मा द्वारा बनाए गए जीव जंतु, अनाज पेड़ पौधों की जगह विश्वामित्र ने ऐसे अनाज जीव जंतु बनाए जो गुणवत्ता में ब्रह्मा से बेहतर थे। जैसे गाय की जगह भैस बना दी जो ज्यादा दूध देती थी। अनाज में 'जौ' के स्थान पर गेहूं बना दिया जिसकी पैदावार ज्यादा थी। कुल मिलाकर इतना समझिए जो अनाज हवन के प्रयोग में आते हैं वो ब्रह्मा के बनाए हैं बाकी विश्वामित्र ने बनाए हैं। कहा जाता है इसके बाद जब उन्होंने मनुष्य बनाने की शुरूवात की तब ब्रह्मा को स्वयं आकर...

तन्हा

शहर में भीड़ है लेकिन शबे तन्हा.. सुबह तन्हा कहीं लगता नहीं ये दिल जिसे देखो वही तन्हा ! बरसते बादलों में भीगते दिखता नहीं कोई  घरों में कैद हैं अपने, सड़क तन्हा गली तन्हा ! मोहब्बत भी बदल के इस तरह कुछ हो गई अब तो  मिले दो पल, हवस निपटी, दिलो धड़कन रही तन्हा ! वो पगडंडी जहां पर दौड़ कर मिलते थे यारों से  सड़क वो हो गई चौड़ी हमें पर कर गई तन्हा ! भरे बाजार, शॉपिंग मॉल हैं रंगीन दिखता सब  मगर बदरंग है हर शय हकीकत में सभी तन्हा ! ये सन्नाटा अकेलापन रगों में बह रहा ऐसे  चलेंगी जब तलक साँसे रहेंगे सब यूँ ही तन्हा !                             ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

पर्यावरण और हम

आज पर्यावरण प्रेमियों ने अपना पर्यावरण प्रेम जाहिर करके पूरा सोशल मीडिया हिलाकर रख दिया है। हरे-भरे स्टैटस देख-देख के मेरी आखें तर गईं है। प्रकृति प्रेम और उसके संरक्षण को लेकर लंबी-लंबी  लिफ्फेबाजी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर की जा रही है। पर हकीकत ये है कि ऐसे पर्यावरण प्रेमी मात्र सोशल मीडिया के कीड़े भर हैं। या यूं कह लें कि ये सोशल वाइरस हैं, और वाइरस के बारे में मशहूर है कि वो वैसे तो मृत अवस्था में रहते हैं लेकिन जैसे ही अनुकूल वातावरण मिलता है ये जीवित हो जाते हैं।  इसी तरह ये पर्यावरण प्रेमी पर्यावरण दिवस वाले दिन जीवित हैं (या कम-से-कम जीवित होने का दिखावा भर करते हैं) और जैसे ही दिन खत्म होता हैं इनकी पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी संवेदनाएं मृत हो जाती हैं।  इस विशेष दिवस पर पौधों की नर्सरी से लगाने के लिए पेड़ मंगाए जाते हैं। फिर तुलसीदास की शैली में बोलें तो ,  " बिनु पग चले सुने बिनु काना..कर विधि कर्म करे बिधि नाना।" वाले दिव्य नेता जी उस पौधे को लगाने या कह लें उस निरीह पौधे को लगाते हुए अपनी फोटो खिंचवाने के लिए आते हैं। फिर उस पौधे को लगाकर वो विभिन्न मुद...

एक दृष्टि में नेहरू

वैसे तो आज का दिन पंडित नेहरू को याद करने का है लेकिन प्रश्न ये उठता है कि नेहरू याद किसको हैं। दशकों पहले नेहरू को लेकर कुछ संस्थाओ और उनसे जुड़े पाखंडी लोगों ने अभियान चलाकर ज़हर की खेती की। उनको ग्यासुद्दीन गाजी का वंशज बताया गया। उनको कामुक अश्लील व्यक्ति बताकर दुष्प्रचार किया गया। और अब तो इस ज़हर से सींच कर तैयार की गई पूरी एक पीढ़ी है जो दिन रात,  बिना इतिहास की एक पुस्तक पलटे नेहरू को गाली देने में लगी है।नेहरू की सोच का यदि 10 पर्सेंट भी अगर सोच लें तो जिनकी खोपड़ी दग जाए ऐसे लोग भी नेहरू का मूल्यांकन करने मे लगे हैं। हम भारतीयों की शुरू से समस्या रही है। खुद चाहे जैसे हों लेकिन नेता हमको ऐसा चाहिए जो ब्रह्मचारी हो। महिलाओ से जिसका कोई लेना-देना न हो। नेहरू की विभिन्न महिलाओं के साथ खींची गई तस्वीरों को आधार बनाकर उनकी आलोचना करते हैं।उनको ऐयाश बताने में लगे रहते हैं। वही दूसरी तरफ लाल बहादुर शास्त्री जी की अपनी पत्नी के साथ दो फिट दूर बैठी एक फोटो को आदर्श बताने में लगे हैं(इसमें कोई दो राय नहीं कि वो इस देश के आदर्श हैं,  लेकिन इसका कारण ये नहीं कि वो अपनी पत्नी से ...

बहुत कमर्शल लगते हो

बहुत कमर्शल लगते हो ! तुम्हारा शेयर मार्केट वाला चहेरा सेंसेक्स सा बदन बजट सी मुस्कुराहट घायल कर जाती है ! तुम्हारी रियल स्टेट जैसी  मजबूत हस्ती  तुम्हारी डॉलर जैसी  आसमान में छलांग लगाती चाल  मन को मोहित कर जाती है ! लेकिन! वो म्युचुअल फंड वाला रिश्ता जिसे तुमने तोड़ दिया चुभ जाता है कभी-कभी ! वो साथ निभाने वाली  कसमों वाला फिक्स डिपॉजिट  जिसे अपनी जिद में तुमने फोड़ दिया  रिस जाता है कभी-कभी ! पर इतना कुछ होने के बाद भी  तुम्हारी ग्लोबल अदाएं दिल की धड़कनों को इनफ्लेशन सा बढ़ा देती हैं ! तुमसे मिलने की 'टर्म एंड कंडीशन' मेरी भावनाओं को  रिसेशन की तरह ढ़हा देती हैं! कभी-कभी सोचता हूं  तुम्हारी ये प्राॅफिट-लाॅस आँकती आखें  जो मोहब्बत को भी नफा-नुकसान से तौलती हैं ! तुम्हारा ये एक्सपोर्ट इम्पोर्ट वाले  दिल की ख्वाहिशें  जो एक जगह से दुसरी जगह  बदलती रहती हैं ! इसका आखिर हिसाब-किताब  कैसे रख लेते हो ! हर वक्त जैसे स्वार्थी  बाज़ार में खड़े हो ! पर देखना.. इतना ध्यान रखना, हर वक्त बाजार में खड़े-खड़े  कहीं...