और इसे मैं लेकर रहूँगा
क्रूर अंगेजी शासन का वो दौर जिसमें बड़े से बड़ा नेता देश के नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की बात भी कानाफूसी की तरह करते थे। एक वो दौर जिसमें "स्वराज" भी भीख की तरह माँगा जा रहा था..बड़े-बड़े धुरंधर नेताओ के स्वराज मांगने का तरीका डिप्लोमेटिक हुआ करता था..वो मांग तो करते थे लेकिन इस तरह से की कहीं उनकी बात से अंग्रजी शासन बुरा न मान जाए! उस दौर में एक ऐसा नेता आया जिसने अपनी बुलंद आवाज से अंग्रेजों के कानो में शीशा पिघला कर भर दिया।उसने बोला, "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।" लेकिन उसकी बात यहीं खत्म नहीं हुई वो आगे बोलता है, "और उसे मैं लेकर रहूँगा।" बाल गंगाधर तिलक की इस बात ने करोड़ों युवा भारतीयों के हृदय में क्रांति के बीज़ बो दिए। "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है..और इसे मैं लेकर रहूँगा।" तिलक का ये नारा मगरूर अंग्रजी शासन के मस्तक पर एक जूते की तरह पड़ा। "और इसे मैं लेकर रहूँगा" इस वाक्य में एक हनक है..इसमें एक जिद है..इसमें एक गजब तरीके का आत्मविश्वास है। इसमें दांत निकालकर या खीसे निपोरकर या रिरियाकर या हाथ जोड़कर कुछ माँगा नही...