शाकाहार एक छलावा
अब मुद्दे पर आते हैं, आखिर विश्वामित्र ने ऐसा किया कैसे। कोई मुझसे पूछे तो वो बस हर चीज का हाईब्रिड बना रहे थे। अलग अलग प्रजातियों के गुणों को मिलाकर नई विकसित प्रजातियां बना रहे थे।
अब आधुनिक समय में यही काम युद्ध स्तर पर किया जा रहा है। आखिर शाकाहारियों का पेट जो भरना है। हालत यह है कि कई सारी सब्जियों फल और अनाजों का हाईब्रिडाइजेशन इस तरह हुआ है कि वो अपने मूल गुणों को ही खो बैठे हैं। अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए जेनटकली मोडिफाइड फसलों को आखें बंद करके बढावा दिया जा रहा है। और ऐसा तब है जब भारत के सोलह राज्यों के लगभग 90 प्रतिशत लोग माँसाहारी हैं। वहीं विश्व की लगभग 50 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप मे माँसाहार पर निर्भर हैं।
शाकाहारी और माँसाहारी के इस खेल को शुरूवात से समझने का प्रयास करते हैं। पौराणिक काल में धरती पर केवल जंगल थे। उसमें अथाह वनस्पति और जैव विविधता की भरमार थी। फिर मनुष्य से खेती करना शुरू किया। वनों को काट कर खेत बनाए गए। पर क्योंकि खेत सीमित और वन अथाह थे ऐसे में जंगली मृग (हिरण) इन फसलों को नुकसान पहुंचाते थे। ऐसे मे राजाओं के शिकार करने के लिए अनिवार्य नियम बनाए गए। इसके दो फायदे थे, एक तो फसलों की रक्षा साथ ही हिरण के मांस खाने को मिलता था। वैदिक काल में हर वर्ण के लोग माँसाहारी थे। इसका एक कारण अनाज का सीमित मात्रा में होना था।
ऐसे हजारों उदाहरण वैदिक ग्रंथों और पुराणों में मिल जाएंगे जिसमें राजाओं के साथ-साथ ऋषि मुनियों के माँसाहारी होने के प्रमाण मिल जाएंगे। यहां तक रामचरितमानस में भी राजा भानुप्रताप वाले प्रसंग में भी इसका ज़िक्र मिलता है।
जिसमें उनके द्वारा किए गए ब्रह्म भोज में एक राक्षस घुस आता और ब्राह्मणों के लिए बन रहे मृगो के मांस में ब्राह्मण को मार कर उसने मांस को मिला देता है-
"बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा।
तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए।
पद पखारि सादर बैठाए॥"
इसी तरह कई अन्य उदाहरण हैं जिसमें कभी अगस्त्य ऋषि द्वारा दैत्य बातापी को खाने का जिक्र मिलता है तो कहीं विशिष्ठ ऋषि द्वारा राजा इच्छ्वाकु के पुत्र को श्राद के लिए माँस की व्यवस्था का जिक्र मिलता है। और उनके माँसाहारी होने का प्रमाण मिलता है। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि उस समय मनुष्यों की जीवन-शैली ऐसी ही थी। माँसाहार उनका मुख्य आहार था। और वो भी प्रकृति द्वारा निर्मित खाद्य श्रंखला का हिस्सा था।
लेकिन समय बदला, आधुनिक समय आते-आते वन संपदा निम्न स्तर पर पहुंच गई। खेती करने की हवस इतनी बढ़ी की वनों का समूल नाश कर दिया गया। खेती को बढ़ावा देने के लिए एक से बढ़कर एक यंत्र आ गए। जिस देश की पारिस्थितिकी और जैव विविधता सबसे सुंदर थी, अनाज पैदा करने की हवस ने उनको नष्ट कर दिया।
मांसाहार से तो केवल कुछ विशेष जानवर को मार कर खाते है और अचरज की बात ये है कि इन जानवरों की संख्या घटती भी नहीं उदहारण के लिए बकरा और मुर्गा को ले सकते हैं। इन जानवरों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। वहीं अनाज पैदा करने की शाकाहारी प्रवृत्ति, कई जीव जंतुओं की पूरी प्रजाति और नस्ल को ही निगल गई है। इस बात को फिर दोहराता हूं, वनों की घटती संख्या और खेती का बढ़ता दायरा। कई जीवो के प्राकृतिक आवासों को खा गई है। बहुत से जीव जंतु की प्रजाति समाप्ति के कगार पर हैं।
अनाज पैदा करने की हवस यही नहीं रुकी है। सदियों से जो छोटे छोटे ताल पोखर थे, जो कि हमारी खाद्य श्रंखला का हिस्सा थे, जिसमें कई जीव जंतु कछुए का निवास स्थान हुआ करता था। खेत समतल करने के चक्कर में और खेती योग्य भूमि को बढ़ाने के लिए इनको भी खत्म कर दिया गया है। और तो और हमारे रामपुर मथुरा से बहने वाली छोटी नदी "चौका" और ऐसी ही तमाम नदियों को समतल करके खेती की जा रही है। जल प्रवाह बाधित होने से ये सूखने के कगार पर है।
लेकिन बात केवल इतनी नहीं है। अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए बहुत ही जहरीले कीटनाशकों का छिड़काव भूमि पर किया जा रहा है। जिसमें भंयकर जीव हत्या हो रही है। कीड़े तो मर ही रहे हैं साथ ही साथ इनके सम्पर्क में आकर तितलियां,मधुमक्खियां छोटी-छोटी चिड़िया आदि की हत्या हो रही है। यहां तक छोटे जीव और पक्षियों से होने वाले परागण के इंतजार में कई पेड़ पौधे बाँझ हो रहे हैं। यही पेस्टीसाइड पानी के साथ बहकर नदियों से जा मिलता है। और उसे जहरीला बनाकर उसके जीव जंतुओं को निगले जा रहा है।
अथाह रासायनिक खादों के प्रयोग से हालत ये हो गई है कि अब ऑर्गेनिक खेती करने से उत्पादन प्रभावित होता है, इसका ताजा उदाहरण श्रीलंका है जहां पूर्णतया ऑर्गेनिक खेती के कानून को लाते ही ये अर्थव्यवस्था के लिए घातक हो गई।
यानी देखा जाए तो क्या जो शाकाहार के नाम पर सब खा रहे हैं वो वो पवित्र और सुरक्षित है। या शाकाहारी व्यंजन को माँसाहार से नकल करके बनाने से वो हानिकारक नहीं हो जाता। पाॅम्ड ऑइल से बने खाद्य पदार्थ ज़हर ही तो हैं। या स्वाद के लिए चायनीज व्यंजन जिससे बेइंतहा 'अजीनोमोटो' पड़ता है। वो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं होता।अजीनोमोटो हमारी स्वाद ग्रन्थियों को ऐक्टिव कर देता है। और वेज के नाम पर जो कूड़ा खाया जाता है, वो स्वादिष्ट हो जाता है। जबकि अजीनोमोटो को सफेद ज़हर कहा जाता है। ये हार्ट अटेक के लिए उत्तरदायी होता है।
दूध को लेकर शाकाहारी सॉफ्ट रहे हैं। वो इसे शाकाहार की ही श्रेणी में रखते हैं। लेकिन महानगर के आसपास की जितनी भी डेरी प्लांट हैं वो हिटलर के बनाए यातनागृह से कम नहीं हैं।भैस गाय के बछड़ो को पैदा होते ही भूखों मार दिया जाता है। क्योंकि इनको पालने को लेकर आने वाली लागत को देखते हुए, इनसे कुछ हासिल नहीं होता। इसी तरह गाय भैसो को 'ऑक्सीटोसिन' का इंजेक्शन लगाकर दूध निकला जाता है। ये दूध ज़हर से कम नहीं, ऑक्सीटोसिन' का इंजेक्शन हार्मोनल डिस्ऑर्डर पैदा करता है। इसके प्रभाव से बच्चों में किशोरावस्था के लक्षण समय से पहले आ रहे हैं। लड़कियों में लड़कों वाले लक्षण और लड़कों में ल़डकियों वाले लक्षण आ रहे हैं। ये शाकाहार नहीं, एक त्रासदी है।
अंत में बस इतना कहना है कि गंगा यमुना दोआब की उपजाऊ भूमि पर पैदा होने का यही फायदा है कि आप माँसाहार को लेकर संवेदनशील हो सकते हैं। इसका अवसर यहां की उपजाऊ जमीन देती है। क्योंकि यहां सब पैदा होता है। ये यहां की मिट्टी ही है जहाँ पंजाब से लेकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश तक किसान धरती का सीना चीर कर या कह ली लिए बलात्कार करके साल में धान की दो फ़सल और एक फ़सल गेहूं की पैदा करते हैं। धरती माता पूरे विश्व के लिए इतनी मेहरबान नहीं हैं। समुद्र के तटीय प्रदेश जहां पैदावार निम्न स्तर की है वहाँ के लोग मछली पर ही निर्भर हैं। वो उसी खाद्य श्रंखला का हिस्सा हैं। या सुदूर रेगिस्तान में जहां वनस्पति के नाम पर कुछ नहीं है वहाँ माँसाहार ही मुख्य भोजन है। संवेदनशीलता दिखानी ही है तो विलुप्त हो रही प्रजातियों को लेकर दिखाएं, अनर्गल तरीके से हो रहे अनाज उत्पादन को लेकर दिखाएं..नष्ट हो रही जैव विविधता को लेकर दिखाएं। क्योंकि समस्त शाकाहारी भले ही इसके प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार न हो..परोक्ष रूप से जरूर हैं।
कभी एक शेर लिखा था-
"तुम भी तो गुनाहगार हो, बराबर के न सही
केवल मेरी खता है ये बात क्या हुई !"
वैसे भी भागवत के 1/13/46 श्लोक में साफ कहा गया है कि "जीवो जीवस्य भोजनं" इसका कोई चाहे कितने अर्थ निकाले लेकिन साफ़ पता चलता है कि हज़ारों वर्ष पहले ही भारतीयों को खाद्य श्रंखला का ज्ञान हो गया था। बस कुछ लोग इस सच्चाई से मुह फेरना चाहते हैं।
©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
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