और इसे मैं लेकर रहूँगा
उस दौर में एक ऐसा नेता आया जिसने अपनी बुलंद आवाज से अंग्रेजों के कानो में शीशा पिघला कर भर दिया।उसने बोला, "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।" लेकिन उसकी बात यहीं खत्म नहीं हुई वो आगे बोलता है, "और उसे मैं लेकर रहूँगा।"
बाल गंगाधर तिलक की इस बात ने करोड़ों युवा भारतीयों के हृदय में क्रांति के बीज़ बो दिए। "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है..और इसे मैं लेकर रहूँगा।" तिलक का ये नारा मगरूर अंग्रजी शासन के मस्तक पर एक जूते की तरह पड़ा।
"और इसे मैं लेकर रहूँगा" इस वाक्य में एक हनक है..इसमें एक जिद है..इसमें एक गजब तरीके का आत्मविश्वास है। इसमें दांत निकालकर या खीसे निपोरकर या रिरियाकर या हाथ जोड़कर कुछ माँगा नहीं जा रहा। इसमें सीने पर चढ़कर और हलक में हाथ डालकर अपने अधिकारों को छीनने के भाव हैं। यही बात अंग्रेजों को नागवार गुजरी।
व्यक्तिगत तौर पर बात करूं तो स्वतंत्रता संग्राम के दौर में जितने भी नारे दिए गए उनमे मेरा सबसे पसंदीदा यही नारा है। ये सुस्त पड़ी आपकी चेतना को झकझोरता है। ये एहसास दिलाता है कि हम अपने अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं।
आज जब देश स्वतंत्र है, हमारा एक संविधान है, उसकी निगरानी करने के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका है। फिर भी अपने मूल अधिकारियों के लिए लोगों को दर बदर भटकते देखा जा सकता है। कुंठित राजनीति और आवारा अफसरशाही के शिकार होकर लोग, अपने अधिकारों को गँवा कर दर्द में जीवन जी रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए तिलक का ये नारा, ऊर्जा दे सकता है। ये एहसास दिलाता है कि अगर हम अपने अधिकारों के लिए लड़ना शुरू कर दें तो हमें उनसे कोई वंचित नहीं कर सकता।
वैसे भी कभी-कभी कुछ अधिकार हाथ जोड़कर मांगने से नहीं मिलते..उनको लड़ कर लेना पड़ता है। यही गीता सिखाती है यही तिलक सिखाते हैं। शायद यही कारण है कि तिलक भगवत गीता पर "भाष्य" लिख पाए। उनकी लिखी 'गीता रहस्य' प्रमाण है कि उनका जीवन दर्शन कैसा था।
आज उनकी जयंती है। आज उनको याद करने का दिन है। और साथ ही आज दिन है अपने अधिकारों के प्रति दृढ होकर खड़े होने का। आज दिन है आत्मविश्वास से अपने अधिकारों की मांग करने का। आज का दिन यही सिखाता है।
©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'
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