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Showing posts from October, 2021

सपने में किसान

ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है ! दिन भर खेत में करता है काम  रात मे जानवरों से फ़सल को बचाने के लिए  खेत में ही सोता है ! जब कातिक में होगी फ़सल की कटाई  तब धूमधाम से करूंगा  बेटी की सगाई ! इसबार साहूकार से  बीबी के गहने भी छुड़वाऊंगा  उसे खुश करने के लिए  एक जोड़ी पायल भी लाऊंगा ! गांव के ज़मींदार का बेटा  छोटी साइकिल क्या चलाता है  उसका बेटा दिन रात उन्हीं के दरवाजे बना रहता है ! इस बार अगर फ़सल अच्छी हुई  तो ला दूँगा बेटे को  एक वैसी ही साईकिल नई ! मन ही मन ये सोच के  खुश होता है ! ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है ! लेकिन आ जाती है बाढ़  फ़सल हो जाती है तार तार  सपने टूट के बिखर जाते हैं  सीना दर्द से फट जाता है  पर चहरे पर सख्ती लिए  वो फिर भी नहीं रोता है ! ये जो किसान है न  ये खेत में बीज नहीं  सपने बोता है !          ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

निःशब्द

निःशब्द! है इसके अलावा और कोई शब्द  जो इस दर्द के पैमाने को  नाप सकता है ! स्तब्ध! है इसके अलावा  हृदय में कोई और भाव  जो इस पीड़ा को  आंक सकता है ! ध्वस्त! है कोई अर्थशास्त्री  इस धरती पर  जो इस नुकसान को  जान सकता है ! वीभत्स ! अस्तव्यस्त! खेतों में पानी नहीं  बह रहा है किसानों का रक्त  है कोई ऊपर वाला  जो इस दर्द को  कम कर सकता है !        ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

कहानी

सदियों पहले समाज के  चुनिंदा लोगों ने  लिख डाली हैं कुछ कहानियां  हमारी अपनी कोई कहानी नहीं  हम तो बस एक किरदार भर हैं जो उन कहानियों को कहते हैं  वही गिनी-चुनी कहानियां  वही गिने-चुने किरदार  वही घिसी-पिटी स्क्रिप्ट  थर्ड क्लास के दर्शकों के बीच  उसी रील को घिसते रहते हैं  पैदा होते ही दिखा दी जाती है  हमको एक दिशा, फिर बैठा दिया जाता है  बिन चंपू की नाव में  और लहरों के सहारे  निर्धारित दिशा में बहते रहते हैं अपनी कहानी और किरदार  कहीं अंदर दफन करके  समाज से मान्यता प्राप्त  कहानियों को क्रत्रिम रूप से जीकर  लगे हैं समाज को खुश करने में  पर अंदर ही अंदर दर्द सहते रहते हैं फिर भी दूसरों की कहानियां कहते रहते हैं                   ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

मजबूती का नाम महात्मा गाँधी

गाँधी! तुम मजबूरी के पर्यायवाची  कैसे हो सकते हो? मजबूर तो वो हैं जो  अंदर ही अंदर तुमसे जलते हैं  पर तुम्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते  मजबूर तो वो हैं जो  सदियों से लगे हैं तुम्हारे नाम को मिटाने में  लेकिन तुम्हारी आभा के सामने टिक नहीं सकते  गाँधी! तुमको मजबूर समझने वाले  असल में मगरूर हैं, अपनी नासमझ अक्ल पे  तुमको मजबूर समझने वाले,  असल में मजदूर है अपनी वहशी सोच के  गाँधी! तुम तो दृढ़ हो अपने दिल से  तुम तो बल हो निर्बल के  किसी एक के नहीं तुम हो सबके  कामचोरी भ्रष्टाचार साम्प्रदायिकता को तिनके की तरह उड़ा दे  तुम्हारे नाम में वो आँधी है सच तो ये है कि मजबूती का नाम महात्मा गाँधी है !                      ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'