विश्व में कोरोना से मरने वालों की संख्या 20 हज़ार हो गई है और इसमें निरंतर इज़ाफा होता जा रहा है।यहाँ गौर करने वाली बात ये है की भारत जैसे देश, जिसकी 75%आबादी को आज़ादी के 75 साल बाद भी अभी तक सरकार पूरी तरह ये समझाने में कामयाब नहीं हो पाई है कि कमसे कम खुले में सौच न करें।और सौच के बाद कमसे कम एक बार हाथ तो धो ही लें। ऐसी स्थिति में हैंड सेनिटाईज़ार और साफ सफाई की बात करना बैमानी सी हो जाती है। चूँकि समस्या इतनी विकराल है कि पूरी मानवता हिल गई है।ऐसे में इसका सामना करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। युरोप जैसे विकसित देशो में इस महामारी का विकराल रूप देख के,और अपने देश के आधारभूत संरचना का पूरा आकलन करने के बाद इस महामारी से बचने का उपाय जो मुझे समझ में आ रहा है वो आप से खुले दिल से कहना चाह रहा हूँ ।बात तीखी हो सकती है..कलेजे में चुभ सकती है पर यकीन मानिए सच ही बोलूंगा। जैसा की प्रधान सेवक से लेके ग्राम प्रधान तक इस महामारी से बचने के लिए पूरी तरह घर पर ही रहने की बात कर रहे हैं। देश को लॉकडाउन कर दिया गया है।पर फिर भी लोग बाहर निकल रहे हैं। अब आप से ज़िक्र करना चहता हूँ की कौन कौन सी ...
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Showing posts from March, 2020
क्या कहने !
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कुछ लोकोत्तियां एवं उनके वाक्य प्रयोग- 1 उड़ता तीर लेना - जब दिसम्बर से ही विश्व में कोरोना वायरस की सुगबुगाहट शुरु हो गई थी तब देश के ये साले कैपेटिलिस्ट मार्च के महीने तक उड़ता तीर लेने विदेश क्यूँ घूमने जा रहे थे! 2 सांप निकलने के बाद लाठी पीटना - कोरोना वायरस लेके जब ये लीचड़ कैपेटिलिस्ट देश में वापस आ रहे थे तब तो साहब ने उनकी एन्ट्री को पूरी तरह बैन नहीं किया और जब वायरस देश में घुस आया तो देश को लॉकअप में डाल के थाली बजाने को कह रहे हैं। ये तो वही बात हुई की सांप निकल गया और बाद में लाठी पीट रहे हैं! 3 खेत खाए गदहा मारा जाए जुलाहा- अब जब ये लीचड़ कैपेटिलिस्ट विदेशो से ये महामारी देश में ले आए हैं।तो ऐसे मे बिचारा दो वक्त की रोती के लिये ज़ीद्दोज़हद करने वाला गरीब भी खतरे में पड़ गया है। ये तो वही बात हुई की खेत खाए गदहा और मारा जाए जुलाहा ! 4 मरता क्या ना करता - ये शहर में महीने भर का राशन भरके बैठे लोग जो थाली बजा रहे हैं उनको शायद पता नहीं गांव का बिचारा गरीब घर में नहीं बैठ सकता क्यकि खेत में फसल पक चुकी है। उसको फसल भी काटनी है।उसे अपने घर में बंधे जानवरों के लिये बाहर स...
उधेड़बुन
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इस सदी तक उधड़ते रहे और तुम एक लम्हें में कैसे बुनोगे हमें पहले सुलझा तो लो, जो है उलझा हुआ गिरहे पड़ जायेंगी जो छुओगे हमें टूटे ख्वाबों की बिखरी जो कतरन पड़ी उनमें बस खोजते ही रहोगे हमें ।। दर्द की सिलवतों में हूँ लिपटा हुआ खीच कर अब कहाँ ले चलोगे हमें बीच से डोर जीवन की खींचो नहीं ढूढ़ो पहला सिरा तब सुनोगे हमें ! घाव से मेरे पैबन्द खीचो नहीं मर गये गर कहीं क्या करोगे हमें ● दीपक शर्मा 'सार्थक'
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वो जब भी देखते हैं तो अपेक्षा भरी नजरों से देखते हैं या उपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं उनके मन का होता रहे वो उसे ही प्रेम समझते हैं समझे भी क्यूँ न ! वो प्रेम को अपनी बपौती जो समझते हैं उन्हें कौन समझाए की उनके बंजर हृदय में प्रेम का स्रोत कब का सूख गया है उनकी वीरान स्वार्थी आखों से प्रेम कबका रूठ गया है इसलिये जब वो देखते हैं तो अपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं या उपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं ● दीपक शर्मा 'सार्थक'