ऐसा देश है मेरा !
कोई माने या न माने..मैं एकदम अपने देश पर गया हूँ। जैसा स्वभाव मेरे देश का है वैसा ही स्वभाव मेरा है।मुझमें और मेरे देश में जो सबसे बड़ी समानता है वो ये है कि हम दोनो हमेशा ग़लत टाइम पर ग़लत साइड पर होते हैं। इसे थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं। जब देश आज़ाद हुआ उस समय दुनियां पूंजीवादी और साम्यवादी, दो धड़ो में बंट थी। पूंजीवादी देशो की अगवाई अमेरिका कर रहा था जबकि साम्यवादी गुट का नेता रूस था। नए-नए आज़ाद हुए भारत के सामने चुनौती थी कि वो किस गुट में शामिल हो? ऐसे में पं नहरू की अगवाई वाले भारत नें दोनो गुटों में से किसी में न शामिल होकर, तटस्ट रहना उचित समझा। नहरू ने एक 'गुटनिर्पेक्ष आंदोलन' की अगवाई की।लेकिन आगे चलकर गुटनिर्पेक्ष आंदोलन अपने उद्देश्य को खो बैठा।और इंदरा गांधी के समय में भारत पूरी तरह रूस पर निर्भर हो गया या यूं कह लें कि रूसी गुट में शामिल हो गया।जो कि मेरे हिसाब से एक राँग टर्न था।
ये वो दौर था जब पूंजीवादी देश तेजी से विकास कर रहे थे।पूरी दुनियां में वैश्वीकरण का दौर चल रहा था।पर भारत उसका लाभ लेने के स्थान पर टूट रहे रसिया के साथ खड़ा था। यहां तक 1978 में चीन जैसे शुद्ध साम्यवादी देश ने भी अपनी बंद अर्थव्यवस्था को वैश्विक कंपनियों के लिए खोल दिया।जिसके कारण चीन में जबरदस्त औद्योगीकरण हुआ।लेकिन भारत ने तब भी अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाज़े नहीं खोले।
बाद में 1991ई. में नरसिंहा राव एवं मनमोहन सिंह की जोड़ी नें कर्ज में डूबी भारतीय अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए, विश्व बैंक के दबाव में आकर देश की अर्थव्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन कर दिया। और देश के दरवाजे वैश्वीकरण के लिए खोल दिए। ये मजबूरी में लिया गया दूसरा राँग टर्न था।क्योंकि उस समय तक बहुत देर हो चुकी थी।देश की अर्थव्यवस्था की स्थित इतनी ख़राब थी कि भारत में मात्र 15 दिनो के खर्च भरका ही विदेशी मुद्रा भंडार बचा था। देश की खराब हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि 1990 से लेकर 1992ई. के बीच,भारत में पंचवर्षीय योजना नहीं लागू की गई बल्कि इसके स्थान पर 'वार्षिक योजना' ही लागू की गई।
जहां चीन ने 1978 ई. में अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाजे दुनियां के लिए अपनी शर्तों पर खोले। वहीं कर्ज में डूबा भारत के पास विश्व बैंक के आगे गिडगिड़ाने और उसकी सभी जायज-नाजायज शर्ते मानने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।
चीन ने वैश्वीकरण को अपनी शर्तों पर स्वीकार किया था इसलिए उसने अपनी उभर रही स्वदेशी कंपनियों को विदेशी कंपनियो से पूर्ण संरक्षण प्रदान किया। जिस कारण चीनी कंपनियां विदेशी कंपनियो का मुकाबला करने में कामयाब रही।वहीं बेबस, मजबूर, कर्ज में डूबे भारत को अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाजे अपनी शर्तो की जगह विश्व बैंक की शर्तो के हिसाब से खोलने पड़े।इस कारण भारत अपनी स्वदेशी कंपनियों को संरक्षण देने में कामियाब नहीं हो पाया।इस लिए जिस तरह चीन का औद्योगीकरण हुआ..वैसा औद्योगीकरण भारत का नहीं हो पाया।
अब आलम ये है कि मंद गति से चलता हुआ भारत इक्कीसवीं सदी आते-आते रूस से दूर होकर अमेरिकी गुट की ओर खिसकता जा रहा है।जो कि तीसरा राँग टर्न है। अब भारत के यशस्वी प्रधानसेवक पूरी दुनियां में दौड़ दौड़ कर भूमंडलीकरण ,वैश्वीकरण पर भाषण दे रहे हैं।
लेकिन समय फिर बदल गया है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देश अब भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण से पीछे हट रहे हैं।
ब्रिटेन भूमंडलीकरण से इस तरह नाराज़ हुआ कि वो 'यूरोपीय संघ' से भी बाहर निकल गया। इस घटना को पूरी दुनियां में 'ब्रेक्जिट' का नाम दिया गया।
अमेरिकी चुनाव में 'डोलाल्ड ट्रंप', "अमेरिका फस्ट" का नारा देकर राष्ट्रपति बन गए।यानि की पूरे विश्व का चौधरी बनने वाला अमेरिका के लिए केवल अमेरिकी हित ही सर्वोपरि हैं।यहां तक जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्या से भी अमेरिका ने जी छुड़ा लिया है।अब भूमंडलीकरण विकसित देशों के हित में नहीं रहा इसलिए ये देश इससे जी चुराने लगे हैं।
ऐसे में हमेशा की तरह भारत ग़लत ट्रेक पर चलते हुए सेल्फ सेंटर होने के स्थान पर भूमंडलीकरण का ढोल पीट रहा है।और
एफ.डी.आई.(फाॅरेन डाइरेक्ट इंवेस्टमेन्ट) के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है।यूं तो भारत सबसे बड़ा उभरता बाज़ार है। लेकिन इसके बावजूद हमारा औद्योगिक ढ़ाचा इतना कमज़ोर है कि हम अपनी छोटी-मोटी आवश्यकता भी पूरी करने के लिए दूसरे देशों का मुह ताक रहे हैं।ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के 70 साल बाद भी हम अपनी आवश्यकता के अनुसार देश का औद्योगीकरण नहीं कर पाए।
इससे इतना तो सीखने को मिलता ही है कि मात्र सही निर्णय लेना ही समझदारी का प्रतीक नहीं है बल्कि सही निर्णय सही समय पर लिया जाए तो समझदारी कहलाएगी। हमेशा ग़लत टाइम पर ग़लत साइड में होने के कारण न हम गुटनिर्पेक्ष हो पाए न रसिया की तरह समाजवादी हो पाए और न ही अमेरिका की तरह पूंजीवादी हो पाए।
और अंत में रही बात मेरी तो मैं भी सदा ग़लत ट्रेक पर रहता हूँ।जब मुझे औरों की तरह सत्ताधारी लोगो के साथ मिलकर सत्ता की मलाई चाटनी चाहिए थी। लेकिन उसकी जगह मैं सत्ताधारी लोगो की आलोचना करने में लगा हूँ।
© दीपक शर्मा 'सार्थक'
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