वही रफ्तार बेढंगी !

बने सरकार सेकुलर की
या आ जाए कोई संघी
बदलता कुछ नहीं यारो
वही रफ्तार बेढंगी !

महामारी सी बीमारी से
दूषित हो गया तन-मन
कुपोषण,भुखमरी की आग
में जलता रहा बचपन
कभी है प्याज की किल्लत
कभी है दाल की तंगी
बदलता कुछ नहीं यारो
वही रफ्तार बेढंगी !

दिखाके ख़्वाब जन्नत का
फंसा लेते हैं बातों में
ख़याली झुनझुना यूं ही
टिका देते हैं हाथों में
बना देते हैं जब टकला
थमा देते हैं फिर कंघी
बदला कुछ नहीं यारों
वही रफ्तार बेढंगी !

विविधता भाईचारा थी
कभी पहचान हम सबकी
अमन और सादगी में ही
बसी थी जान हम सबकी
मगर पड़के सियासत में
बने फिरतेे हैं जब जंगी
बदलता कुछ नहीं यारो
वही रफ्तार बेढंगी !

बने सरकार सेकुलर की
या आजाए कोई संघी
बदलता कुछ नहीं यारो
वही रफ्तार बेढंगी !

    © दीपक शर्मा 'सार्थक'

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