भारतीयता बनाम राष्ट्रवाद
एक तो राष्ट्रवादियों से मैं बहुत दुखी हूँ। जबतक ये हर चीज़..हर घटना..हर विषय को राष्ट्र से न जोड़ दें तक तक इनके पाचन ग्रन्थियों से खाना पचाने वाले एंजाम स्रावित नहीं होते।
अब यही देख लो ! नया वर्ष आया नहीं कि ये राष्ट्रवादी न जाने कहां से निकल कर और अपने राष्ट्र के नाम संबोधन में सबको बताने लगते हैं कि ये वाला नया वर्ष अंग्रेजो वाला है।अत: इसको न मनाएं।इसके स्थान पर अपना वाला नया वर्ष मनाएं।
अगर थोड़ी देर के लिए इनकी बात मान भी ली जाए, तब इन धरतीफोड़ राष्ट्रवादियों से ये पूछना चाहिए कि आखिर ये साल के आखरी दिन ही क्यों प्रकट होते हैं?..बाकी पूरा साल किस बिल में घुसे रहते हैं।
कुछ कर्मकांडी संसकारों को छोड़ दें तो आखिर दैनिक जीवन में भारतीय कलेण्डर की उपियोगिता कहाँ बची है।
कुछ बूढ़े पुराने लोगो को छोड़ दे तो कितने प्रतिशत आधुनिक भारतीय जनमानस को पता रहता है कि हिंदी के बारह महीनों के नाम क्या है..? कितनी तिथियां होती है ? शुक्लपक्ष क्या है कृष्णपक्ष क्या है? संवत क्या है ?
किसी को कुछ नहीं मालूम होगा। इसका मुख्य कारण ये है कि इसकी उपियोगिता ही हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से समाप्त हो गई है।
इस पीढ़ी को भले ही कुछ याद हो..पर आने वाली पीढ़ी तो इससे पूरी तरह कटी होगी।इसमें उस पीढ़ी की ग़लती नहीं है।
क्योंकि उनके दैनिक जीवन में भारतीय कलेण्डर की कोई सरोकार ही नहीं रह गया है।
कांवेन्ट के बच्चे तो हिन्दी की गिनतियां भी जानते हैं न लिख पाते हैं।कितने अध्यापक हैं जो ब्लेकबोर्ड पर डेट की जगह तिथियां डालते हैं?
अब ज़रा अपने पहनावे-ओड़ावे,खान-पान,रहन-सहन पर नज़र दौड़ा लेते हैं।
पैंट शर्ट ,जीन्स,अंडरवियर बनयाइन ये बस कुछ विदेशी पहनावा है।यहां तक कुर्ता पैजामा भी अरबी पहनावा है।हमारा खाना पीना भी पूरी तरह विदेशी रंग में रंगता जा रहा है।हमारे घर का रहन सहन,साज सज्जा के सामान सभी कुछ विदेशी होता जा रहा है।सिलबट्टे की जगह मिक्सी ने ले ली है।खाट की जगह बेड ने लेली है।यहां तक की हमारे खाने पीने के तौर तरीके भी विदेशी होते जा रहे हैं।अब कपड़े उतार कर रसोई में पल्थी मार कर बैठ के खाने के स्थान पर डायनिंग टेबल खाना खाया जाने लगा है।
'उपयोगिता के सिद्धांत' के अनुसार जो चीज़ उपयोगी नहीं होती दैनिक जीवन के चलन में नहीं होती उसको चाहे जितना संरक्षण दिया जाए..चाहे जितना भाषण दिया जाए पर उसको बचा नहीं सकते।इसीलिए भारतीय कलेण्डर..खान-पान,रहन सहन,सब खत्म होता जा रहा है।
पर मेरा मानना है कि इन सब के बावज़ूद हमारी 'भारतीयता' ख़तरे में नहीं है।बल्कि ये धरतीफोड़ राष्ट्रवादी ही भारतीयता के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।
मैं 'भारतीयता' और 'राष्ट्रवाद' दोनो को अलग-अलग मानता हूँ।
पहले राष्ट्रवाद को समझते हैं।ये सर्वविदित है कि दुनियां में सबसे पहले 'राष्ट्रवादी चेतना' युरोप में आई।राष्ट्रवादी सिद्धांत युरोप में ही फला फूला और बाद में ये दुनियां के अन्य हिस्सों में पहुचा।
यानि इस तरह से देखा जाए तो 'राष्ट्रवाद' एक विदेशी भूमि पर जन्मी अवधारणा हैं और सपाट लहजे में कहूँ तो'राष्ट्रवाद' भी विदेशी सिद्धांत है।
भारत में तो राष्ट्रवाद बहुत देर में आया। अंग्रेज़ो के पहले से ही भारत छोटे-छोटे भूभाग वाली रियासतों में बंटा था। तब न ही संपूर्ण भारत का कोई नक्शा था और न ही संपूर्ण भारत का कोई झण्डा,चिन्ह या प्रतीक या राष्ट्रगान ही था। इसलिए आज हमारे मस्तिष्क में राष्ट्र को लेकरके जो छवि बनी है वो छवि उस वक्त के लोगों के मस्तिष्क में नहीं थी। इसलिए कोई राट्रवादी चेतना नहीं थी।
यहां तक सन 1857 ई. की क्रांति को 'सावरकर' ने 'प्रथम राष्ट्रीय स्नतंत्रता संग्राम' की संज्ञा देनी की कोशिश की जिसकी आलोचना करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार 'सी.मजूमदार' ने लिखा है-
" यह न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय था, और ये स्वतंत्रता के लिए संग्राम भी नहीं था।"
जाहिर है उस वक्त तक भी भारत में 'राष्ट्रवाद' की अवधारणा नहीं पनपी थी।
लेकिन इन सबके बावजूद हम भारतीय अपने आप में अनूठे थे, हैं और रहेंगे।आदि काल से ही हमने समस्त धरा को अपना घर सभी लोगों को अपना परिवार माना है।हमारा सिद्धान्त 'वसुधैव कुटुम्ब' का रहा है। और यही 'भारतीयता' है।
जिस तरह सारी नदियां आकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार पूरी दुनियां के सारे विचार,त्वहार, सिद्धांत को हम भारतीय अपने अंदर समाहित कर लेते हैं। लेकिन साथ में ही हर चीज़ का भारतीयकरण कर देते हैं।उदाहरण के तौर पर जन्मदिन पर केक काटने की परम्परा विदेश से आई पर हमने उसका भारतीयकरण कर दिया।यानि केक काटने से पहले माँ रोली का टीका लगाती हैं..लो हो गया भारतीयकरण! नए साल में मंदिर में प्रसाद चढ़ाने जाना..डायनिंग टेबल पर चम्मच एक किनारे रखकर हाथो से खाना।यही भारतीयता है..यही भारत है।और इसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।हमारा लचीलापन ही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है। कट्टरपंथी विचारों से इसको बचा के रखें।
© दीपक शर्मा 'सार्थक'
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