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Showing posts from September, 2022

अब कहती हो प्यार नहीं है

हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है ! जिन नयनों से निस-दिन प्रतिपल प्रेम की वर्षा होती थी  जिन अधरों से निश्छल कोमल बस मुस्कान बिखरती थी  आज मुझे चिंतित कुम्हलाई  छवि तेरी स्वीकार नहीं है हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है  ! कभी क्षणिक आलिंगन से तुम हिम की भांति पिघल जाती थी और सजल शीतल सरिता सी  जलनिधि से तुम मिल जाती थी किंतु स्रोत सूखे संवेगो में पहले सा सार नहीं है हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है ! क्यों प्रतक्ष से आंख मूंद कर प्रेम को तुम झुठलाती हो निज कुंठा का उत्तरदाई गैर को क्यों ठहराती हो इस गमगीन निराशा का अब क्या कोई उपचार नहीं है  हृदय में इतने स्वप्न जगाकर अब कहती हो प्यार नहीं है !            ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

भाषाएं भी मर जाया करती हैं

भाषाएं भी मर जाया करती हैं कभी अपना अर्थ खोकर या अर्थ का अनर्थ होकर अपनो की खाकर ठोकर जब उपेक्षित होती रहती हैं भाषाएं भी मर जाया करती हैं ! अंग्रजी के महा आवरण से बचती शहरों में अकेलेपन से सहमी दिन पर दिन अपने ही दायरे में सिकुड़ती  अपने आस्तित्व के लिए लड़ती रहती हैं भाषाएं भी मर जाया करती हैं ! अब वो न हिंदी हैं न हमवतन हैं  अब न वो हिंदी ही हैं न इंग्लिश हैं बलात्कारी अंग्रेजी की अवैध संतान हैं  अब वो अधकचरे हिजड़े ’हिंग्लिश’ हैं ऐसे ही पतन के गर्त में गिरती रहती हैं अच्छा ही है जो अपना हश्र देखने से पहले  भाषाएं  मर जाया करती हैं !                   ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’

गुरु वंदना

दिखाए हमको रास्ता बनी है इसपे आस्था अंधेरे से निकालता है नव प्रकाश गीत है ! ये ब्रह्म के समान है धरा पे चारों ओर बस इसी के यश का गान है संवारे है, निखारे है यही तो इसकी रीत है ! कभी है मेरु सा अचल  कभी समुद्र सा सजल विराट अपनी सोच में स्वभाव से विनीत है ! प्रेम से भरा हृदय  समस्त स्वार्थ से परे ज्ञान की किरण है और बोध का प्रतीक है ! निकाला हमको कूप से बचाया हमको धूप से गुरु तेरे चरण में ही तो 'सार्थक' की प्रीत है !           ©️ दीपक शर्मा ' सार्थक'

सब निपुण हो रहे हैं

जंगल का राजा निपुण हो रहा है रोज बे सिर–पैर के आदेश देने में, मनमानी करने में ! जंगल निपुण हो रहा है खानापूर्ति करने में, नतमस्तक होकर हर आदेश मानने में ! जंगली निपुण हो रहे है शिकर करने में, शिकर को निकलते हैं कभी अकेले तो कभी झुंड में ! जानवर निपुण हो रहे हैं अपनी जान बचाने में, बेतहाशा भाग रहे हैं सड़क पर डाल कर जान जोखिम में ! जी हां, सब निपुण हो रहे हैं अपने अपने हुनर में, अपने अपने काम में !            ©️ दीपक शर्मा ’सार्थक’