ख़ुदी में डूबा सा बेजान है शहर पूरा
कोई सुकून न उम्मीद हम रहें कैसे
उमर ग़ुजर गई पूरी यूंही ख़यालो में
जो बात दिल में है लब्ज़ो में हम कहें कैसे
है वो नदी मेरा वजूद है तिनके जैसा
नहीं बस में मेरे हालात ना बहें कैसे
इसी फ़िराक में दिन रात है लगा कोई
कि टूट कर किसी शीशे सा हम ढहें कैसे
नज़रअंदाज़ करना बेरुखी से देख कर मुझे
ये इंतहां है दर्द की इसे सहें कैसे
शरीक ग़म में हो ऐसा कोई जहां में नहीं
कोई तखलीफ में हो फिर ये कहकहे कैसे
© दीपक शर्मा 'सार्थक'
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