संवेदनाए साम्यवादी हो गई है शायद !
न मिलने की ख़ुशी
न बिछड़ने का ग़म
न टूटने की इच्छा
न जुड़ने का भ्रम
न गिरने की सीमा
न उठने का दम
न होठो पे मुस्कुराहट
न आंखे ही नम

सोच भी नाज़ी हो गई है शायद !
सपनो को कुचले
चाहत का दमन
हैवानियत का आलम
इंसान का पतन
ख़ुशियो पे फैला
हुआ है कफ़न
उम्मीद हैं सारी
ज़मी में दफन
या मैं ही थोड़ा ज्यादा
जज़्बाती हो गया हूँ शायद !

      © दीपक शर्मा 'सार्थक'

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