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मदीने की वजह भूल गए

जिंदगी जीते जी , जीने की वजह भूल गए चाक दिल सिल रहे, सीने की वजह भूल गए दर्द ए गम से मिले फुर्सत, गए मैखाने को इस कदर पी लिया, पीने की वजह भूल गए ! मुझे मुजरिम की तरह रोज़ बुलाता मुंसिफ इतना दौड़े कि, सफ़ीने की वजह भूल गए ! जो ये मजदूर हैं दिनभर हैं दिहाड़ी करते मिली मजदूरी, पसीने की वजह भूल गए सिर्फ दाढ़ी को ही वो दीन समझ बैठे जब ऐसा उलझे कि मदीने की वजह भूल गए                      © दीपक शर्मा ’सार्थक’

कच्ची दारू कच्ची वोट

लोकतंत्र को बना के कीचड़ सुअर के जैसे रहें हैं लोट कच्ची दारू..कच्चा वोट पक्की दारू..पक्का वोट मुर्गा दारू..खुल्ला वोट ! जाति कहीं यदि प्रत्याशी की उनसे मेल नहीं खाती मुद्दों पर ही वोट पड़ेगा सोच के नीद नहीं आती जाति उन्हीं की सर्वेसर्वा बाकी सब में खोट ही खोट इक दूजे को रहें हैं नोच जाति ने नाम पे पड़ेगा वोट गर्त में देश, नहीं अफसोस ! सुचिता बैठी सोच रही है कितने लीचड़ हैं ये लोग शर्म बेच के, मर्यादा का गला दिया है खुद ही घोंट था जमीर पहले ही गिरवी बेचा मत, कुछ पाकर नोट नशे में रहते हैं बेहोश देश की नीव रहें हैं खोद फिर नेता का देंगे दोष !           © दीपक शर्मा ’सार्थक’